उत्तर प्रदेश की राजनीति में भाजपा और क्षेत्रीय दलों का गठबंधन: सफलता, चुनौतियां और भविष्य
उत्तर प्रदेश की राजनीति में भाजपा और क्षेत्रीय दलों का गठबंधन: सफलता, चुनौतियां और भविष्य
उत्तर प्रदेश की राजनीति में भाजपा और छोटी क्षेत्रीय पार्टियों के बीच गठबंधन की भूमिका और उसकी जटिलताएं वर्तमान समय में चर्चा का विषय बनी हुई हैं। यह गठबंधन न केवल राज्य की चुनावी राजनीति में असर डालता है, बल्कि सामाजिक समीकरणों को भी गहराई से प्रभावित करता है। भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अपनी शक्ति को व्यापक रूप से बढ़ाने के लिए छोटी क्षेत्रीय पार्टियों जैसे अनुप्रिया पटेल की ‘अपना दल’, ओमप्रकाश राजभर की ‘सुभासपा’ (सुवर्ण समाज पार्टी), और ‘निषाद पार्टी’ जैसे संगठनों के साथ गठबंधन किया। इस लेख में हम भाजपा और इन छोटी पार्टियों के बीच गठबंधन की सफलता, चुनौतियां, और भविष्य की संभावनाओं का गहन विश्लेषण करेंगे।
गठबंधन की शुरुआत और उद्देश्य
उत्तर प्रदेश की जातिगत राजनीति में छोटी क्षेत्रीय पार्टियों का महत्व हमेशा से रहा है। इन पार्टियों के पास अपने प्रभाव वाले क्षेत्र और जातीय समुदायों में जबरदस्त पकड़ होती है। भाजपा ने इसे समझते हुए इन पार्टियों को अपने साथ जोड़ने की रणनीति अपनाई।
अपना दल (अनुप्रिया पटेल): अपना दल ने कुर्मी समुदाय में मजबूत पकड़ बनाई हुई है, जो उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में प्रभावशाली है। भाजपा ने इस समुदाय को अपने पक्ष में करने के लिए अपना दल के साथ गठबंधन किया।
सुभासपा (ओमप्रकाश राजभर): सुभासपा का प्रभाव पूर्वी उत्तर प्रदेश में राजभर समुदाय पर अधिक है। राजभर समुदाय सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ माना जाता है। भाजपा ने इस समुदाय को अपने साथ जोड़ने के लिए ओमप्रकाश राजभर की पार्टी से समझौता किया।
निषाद पार्टी (डॉ. संजय निषाद): निषाद पार्टी ने मछुआरा समुदाय और अन्य पिछड़ी जातियों के वोटों पर पकड़ बनाई। भाजपा ने इस समुदाय को साधने के लिए निषाद पार्टी के साथ गठबंधन किया।
गठबंधन का मुख्य उद्देश्य था जातीय समीकरण को साधकर वोट बैंक को मजबूत करना और सपा, बसपा तथा कांग्रेस जैसी पार्टियों को कमजोर करना। यह रणनीति भाजपा के लिए फायदेमंद साबित हुई और उसने 2017 के विधानसभा चुनावों में शानदार प्रदर्शन किया।
विधान सभा चुनावों में गठबंधन की सफलता
2017 और 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा ने इन क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और बड़ी सफलता हासिल की। इन चुनावों में भाजपा को ओबीसी और अन्य जातियों के बड़े हिस्से का समर्थन मिला, जिसका श्रेय इन पार्टियों के साथ गठबंधन को दिया जा सकता है।
2017 का चुनाव: भाजपा और उसके सहयोगियों ने 300 से अधिक सीटें जीतीं। यह जीत जातिगत समीकरणों को साधने की रणनीति और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व का नतीजा थी। अपना दल और निषाद पार्टी ने भी अपनी प्रभावशाली सीटों पर जीत दर्ज की।
2022 का चुनाव: इस चुनाव में भाजपा ने एक बार फिर अपना दबदबा बनाए रखा। हालांकि सपा ने अपनी स्थिति को मजबूत किया, लेकिन भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियां सत्ता में बनी रहीं। निषाद पार्टी और अपना दल ने इस बार भी अपने क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन किया।
गठबंधन की यह सफलता दिखाती है कि भाजपा ने इन छोटी पार्टियों के जातीय आधार का सफलतापूर्वक उपयोग किया।
बढ़ता अविश्वास और टकराव
गठबंधन की सफलता के बावजूद, भाजपा और इन क्षेत्रीय दलों के बीच मतभेद और टकराव बढ़ने लगे। यह टकराव कई कारणों से उभरा:
अनुप्रिया पटेल और अपना दल
अनुप्रिया पटेल ने समय-समय पर भाजपा पर उनकी पार्टी की अनदेखी का आरोप लगाया। उन्होंने मांग की कि उनकी पार्टी को सरकार में अधिक हिस्सेदारी दी जाए।
अपना दल ने कुर्मी समुदाय के लिए अधिक प्रतिनिधित्व और उनकी समस्याओं के समाधान की मांग की।
कई बार अनुप्रिया पटेल ने यह संकेत भी दिया कि यदि भाजपा उनकी पार्टी को महत्व नहीं देती, तो वे अपने विकल्पों पर विचार कर सकती हैं।
ओमप्रकाश राजभर और सुभासपा
ओमप्रकाश राजभर भाजपा के सबसे मुखर आलोचकों में से एक रहे हैं, भले ही उनकी पार्टी भाजपा की सहयोगी रही हो।
राजभर ने भाजपा पर पिछड़ी जातियों की उपेक्षा करने और उनके अधिकारों को अनदेखा करने का आरोप लगाया।
2019 के लोकसभा चुनाव के बाद, राजभर ने भाजपा से नाता तोड़ लिया और सपा के साथ गठबंधन कर लिया।
निषाद पार्टी और संजय निषाद
निषाद पार्टी के नेता डॉ. संजय निषाद ने भी भाजपा से अधिक हिस्सेदारी की मांग की।
उन्होंने निषाद समुदाय के लिए आरक्षण की मांग को बार-बार उठाया।
पार्टी के नेताओं ने भाजपा पर यह आरोप लगाया कि वह अपने वादे पूरे करने में असफल रही है।
गठबंधन में बदलाव और वर्तमान स्थिति
2024 के लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए, भाजपा इन क्षेत्रीय दलों को अपने साथ बनाए रखने की कोशिश कर रही है।
अपना दल: भाजपा ने अनुप्रिया पटेल की पार्टी को संतुष्ट करने के लिए उन्हें केंद्रीय मंत्री बनाया और उनकी पार्टी को महत्वपूर्ण भूमिका देने का वादा किया।
निषाद पार्टी: संजय निषाद की मांगों को भी आंशिक रूप से स्वीकार किया गया और उन्हें राज्य की राजनीति में अधिक महत्व दिया गया।
सुभासपा: हालांकि ओमप्रकाश राजभर ने भाजपा से दूरी बना ली है, लेकिन सियासी समीकरण बदलने पर वे वापस गठबंधन में आ सकते हैं।
गठबंधन की चुनौतियां
भाजपा और छोटी पार्टियों के गठबंधन को लेकर कई चुनौतियां हैं:
जातिगत समीकरण: उत्तर प्रदेश में जातिगत राजनीति गहरी है। हर पार्टी अपनी जाति के लिए अधिक लाभ चाहती है।
राजनीतिक महत्वाकांक्षा: छोटी पार्टियां अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखना चाहती हैं, जबकि भाजपा उनकी भूमिका को सीमित करना चाहती है।
स्थिरता की कमी: गठबंधन में अविश्वास और मतभेद लंबे समय तक इसे स्थिर नहीं रहने देते।
आंतरिक कलह: इन पार्टियों के भीतर भी नेतृत्व को लेकर विवाद होते रहते हैं, जो गठबंधन को कमजोर करते हैं।
भविष्य की संभावनाएं
भाजपा और इन क्षेत्रीय दलों के बीच गठबंधन का भविष्य 2024 के लोकसभा चुनावों पर निर्भर करेगा।
यदि भाजपा इन पार्टियों को संतुष्ट कर पाती है और उनके मुद्दों को हल कर पाती है, तो यह गठबंधन और मजबूत हो सकता है।
लेकिन यदि अविश्वास और टकराव बढ़ता है, तो ये पार्टियां अन्य विकल्पों की तलाश कर सकती हैं।
निष्कर्ष
उत्तर प्रदेश में भाजपा और छोटी पार्टियों का गठबंधन एक रणनीतिक आवश्यकता है, जो राज्य की राजनीति और सामाजिक संरचना को गहराई से प्रभावित करता है। हालांकि, यह गठबंधन एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें संतुलन बनाए रखना बेहद कठिन है।
भाजपा को अपनी राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय रणनीति में इन छोटी पार्टियों की भूमिका को महत्व देना होगा। वहीं, इन पार्टियों को भी भाजपा के साथ तालमेल बनाए रखना होगा ताकि वे अपने समुदायों के हितों को बेहतर ढंग से आगे बढ़ा सकें। यदि दोनों पक्ष मिलकर काम करते हैं, तो यह गठबंधन न केवल राज्य में, बल्कि देश की राजनीति में भी एक नया इतिहास लिख सकता है।
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