उत्तर प्रदेश में गैर-यादव ओबीसी राजनीति: सत्ता समीकरण का नया केंद्र

उत्तर प्रदेश में गैर-यादव ओबीसी राजनीति: सत्ता समीकरण का नया केंद्र

उत्तर प्रदेश में गैर-यादव ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) राजनीति का उदय राज्य की सत्ता और सामाजिक संरचना में बड़ा बदलाव लाने वाला कारक रहा है। यादव समुदाय लंबे समय तक ओबीसी राजनीति में वर्चस्व बनाए हुए था, विशेषकर समाजवादी पार्टी (सपा) के नेतृत्व में। सपा ने यादवों और मुस्लिमों को एक मजबूत वोट बैंक के रूप में विकसित किया, लेकिन इसके चलते अन्य ओबीसी जातियां अपने को उपेक्षित महसूस करने लगीं। गैर-यादव ओबीसी जातियां, जैसे कुर्मी, लोधी, मौर्य, कुशवाहा, सैनी, निषाद, प्रजापति, तेली, और अन्य, ने पिछले कुछ दशकों में अपनी अलग राजनीतिक पहचान बनाने का प्रयास किया है।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

  1. मंडल कमीशन का प्रभाव:
    1990 के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशों ने ओबीसी राजनीति को एक नई दिशा दी। हालांकि, इसका अधिकांश राजनीतिक लाभ यादवों और कुछ प्रमुख जातियों को मिला। गैर-यादव ओबीसी जातियां, जिनकी आबादी यादवों से कहीं अधिक है, अपेक्षित राजनीतिक और सामाजिक लाभ से वंचित रह गईं। इस असंतोष ने गैर-यादव जातियों के भीतर एक नई राजनीतिक चेतना का विकास किया।

  2. बीजेपी का गैर-यादव ओबीसी समीकरण:
    2014 के बाद, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने गैर-यादव ओबीसी जातियों को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बीजेपी ने इन जातियों को सत्ता और प्रतिनिधित्व में हिस्सेदारी देकर सपा के यादव-मुस्लिम वोट बैंक को कमजोर किया। नरेंद्र मोदी का "चायवाला" और ओबीसी पृष्ठभूमि से आने वाला चेहरा इस राजनीति को धार देने में सफल रहा।

  3. सपा और बसपा का सीमित प्रभाव:
    यादव-मुस्लिम गठजोड़ पर आधारित समाजवादी पार्टी और दलित राजनीति पर केंद्रित बहुजन समाज पार्टी (बसपा) गैर-यादव ओबीसी को अपने साथ जोड़ने में संघर्ष करती रहीं। इन दोनों पार्टियों ने समय-समय पर गैर-यादव जातियों को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की, लेकिन अपेक्षित सफलता नहीं मिली।

मौजूदा स्थिति

  1. गैर-यादव जातियों का बीजेपी की ओर झुकाव:
    बीजेपी ने गैर-यादव ओबीसी जातियों को अपनी राजनीति के केंद्र में रखा है। "सबका साथ, सबका विकास" का नारा देकर पार्टी ने इन जातियों का विश्वास जीतने का प्रयास किया। योगी आदित्यनाथ सरकार में गैर-यादव ओबीसी जातियों को कैबिनेट और अन्य महत्वपूर्ण पदों में बड़ी भागीदारी दी गई।

  2. छोटे दलों की भूमिका:
    गैर-यादव ओबीसी जातियों को संगठित करने में छोटे दलों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

    • अपना दल: अनुप्रिया पटेल के नेतृत्व में यह दल कुर्मी जाति का प्रभावशाली प्रतिनिधि बनकर उभरा।
    • निषाद पार्टी: निषाद समुदाय को राजनीतिक रूप से संगठित कर बीजेपी के साथ गठबंधन करके इस दल ने अपनी राजनीतिक ताकत दिखाई।
    • अन्य छोटे दल, जैसे सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (SBSP), ने भी गैर-यादव ओबीसी राजनीति को मजबूती दी है।
  3. सपा और बसपा की स्थिति:
    सपा यादव-मुस्लिम गठजोड़ से बाहर निकलकर गैर-यादव ओबीसी जातियों को आकर्षित करने का प्रयास कर रही है। अखिलेश यादव ने हाल के चुनावों में मौर्य और राजभर जैसे नेताओं को अपने साथ जोड़ा। दूसरी ओर, बसपा का प्रभाव कमजोर हो गया है और वह गैर-यादव ओबीसी जातियों का समर्थन पाने में असफल रही है।

चुनौतियां और संभावनाएं

  1. जातीय एकता की कमी:
    गैर-यादव ओबीसी जातियों के भीतर सामाजिक और आर्थिक असमानता के कारण इनका एकजुट होना मुश्किल है। कई बार ये जातियां आपस में प्रतिस्पर्धा में रहती हैं, जिससे इनकी राजनीतिक ताकत बंट जाती है।

  2. जाति जनगणना का मुद्दा:
    जाति आधारित जनगणना गैर-यादव ओबीसी जातियों के लिए एक प्रमुख मांग बन चुकी है। इससे इन्हें अपनी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण और अन्य लाभ प्राप्त करने का आधार मिलेगा।

  3. आरक्षण और प्रतिनिधित्व:
    गैर-यादव ओबीसी जातियां अपने लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा में अधिक आरक्षण की मांग कर रही हैं। यह मुद्दा भविष्य में राजनीति का एक प्रमुख केंद्र हो सकता है।

  4. बीजेपी का संतुलन बनाए रखना:
    बीजेपी को यादव और मुस्लिम विरोधी छवि से बाहर निकलते हुए गैर-यादव ओबीसी जातियों का समर्थन बनाए रखना होगा। यदि पार्टी इन जातियों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं देती है, तो इनका झुकाव अन्य दलों की ओर हो सकता है।

निष्कर्ष

उत्तर प्रदेश में गैर-यादव ओबीसी राजनीति ने सत्तारूढ़ दलों और गठबंधनों के लिए एक नया सत्ता समीकरण तैयार किया है। बीजेपी इस समीकरण का सबसे बड़ा लाभार्थी रही है, जबकि सपा और बसपा को इस वोट बैंक को फिर से हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। जातीय समीकरण, आरक्षण, और जनगणना जैसे मुद्दे भविष्य में इस राजनीति को और भी जटिल और निर्णायक बना सकते हैं। गैर-यादव ओबीसी जातियां न केवल उत्तर प्रदेश की राजनीति का केंद्र बन चुकी हैं, बल्कि देश की राजनीति में भी इनकी भूमिका अहम होती जा रही है।

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