UPPCS MAINS GENERAL STUDIES (PAPER - II) solution 2023

 

UPPCS GENERAL STUDIES (PAPER - II) solution 2023

Section-A

Q-1 Why the Preamble is called the Philosophy of the Indian Constitution ?

ANSWER-

भारतीय संविधान की प्रस्तावना (Preamble) संविधान का एक महत्वपूर्ण भाग है, जिसे भारतीय संविधान का "दर्शन" भी कहा जाता है। इसे संविधान का आध्यात्मिक, राजनीतिक और सामाजिक मार्गदर्शक माना जाता है। प्रस्तावना में निहित शब्द और उद्देश्य संविधान की मूल आत्मा और उसके उद्देश्यों का परिचायक हैं।

प्रस्तावना के तत्व और उनका महत्व

1.      लोकतंत्र की अभिव्यक्ति: प्रस्तावना में शब्द "हम भारत के लोग" से यह स्पष्ट होता है कि भारत का संविधान लोकतांत्रिक सिद्धांत पर आधारित है। यह इस बात की पुष्टि करता है कि भारत का शासन जनता द्वारा और जनता के लिए है। यह लोकतांत्रिक अधिकारों और कर्तव्यों को सम्मानित करता है और बताता है कि इस देश में सत्ताधारी जनता ही है, कि कोई बाहरी शासक या शक्ति।

2.      समानता और स्वतंत्रता की सख्त पुष्टि: प्रस्तावना में उल्लेख किया गया है कि भारत एक ऐसा राष्ट्र है, जहाँ समानता, स्वतंत्रता, और भाईचारे की अवधारणाएँ संरक्षित हैं। इस प्रकार, भारतीय संविधान व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है, जिससे हर नागरिक को समान अवसर मिलता है, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, या लिंग का हो।

3.      समाजवादी सिद्धांत: प्रस्तावना में शब्द "समाजवादी" का समावेश भारतीय संविधान के सामाजिक और आर्थिक न्याय के सिद्धांत को दर्शाता है। यह दर्शाता है कि भारतीय राज्य का उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक समानता सुनिश्चित करना है। यह सुनिश्चित करना कि हर नागरिक को उसकी मेहनत का उचित फल मिले और किसी भी व्यक्ति को गरीबी, भेदभाव या आर्थिक असमानता से गुज़रना पड़े।

4.      धर्मनिरपेक्षता: भारतीय संविधान की प्रस्तावना में "धर्मनिरपेक्ष" शब्द का प्रयोग किया गया है, जो इस बात को स्पष्ट करता है कि भारतीय राज्य धर्म से परे और निरपेक्ष है। इसका मतलब यह है कि भारतीय सरकार किसी भी धर्म को बढ़ावा नहीं देती, और सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान और व्यवहार रखती है। इस सिद्धांत से धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा होती है।

5.      गणराज्य की अवधारणा: प्रस्तावना में "गणराज्य" शब्द से यह स्पष्ट होता है कि भारत एक गणराज्य है, यानी कि यहाँ का शासन राजा या साम्राज्य द्वारा नहीं, बल्कि जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है। यह लोकतंत्र और स्वतंत्रता की पुष्टि करता है।

प्रस्तावना का दार्शनिक महत्व

भारतीय संविधान की प्रस्तावना संविधान के दर्शन और सिद्धांतों को दर्शाती है। यह निम्नलिखित दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है:

1.      आध्यात्मिक दृष्टिकोण: प्रस्तावना भारतीय लोकतंत्र का आदर्श प्रस्तुत करती है, जो जनतांत्रिक मूल्यों, स्वतंत्रता, समानता, और भाईचारे पर आधारित है। यह संविधान को जनता के अधिकारों का संरक्षक और उस पर विश्वास जताने वाला बनाता है।

2.      सामाजिक दृष्टिकोण: प्रस्तावना में यह संकल्प व्यक्त किया गया है कि समाज में सभी को समान अधिकार मिलेंगे, और किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा। यह भारतीय समाज की समानता और न्याय की ओर बढ़ने की दिशा को निर्धारित करता है।

3.      राजनीतिक दृष्टिकोण: प्रस्तावना भारतीय राजनीति का आधार बनती है। यह बताती है कि भारत एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर गणराज्य है, जो अपनी शासन व्यवस्था को लेकर किसी भी बाहरी दबाव से मुक्त है।

निष्कर्ष:

भारतीय संविधान की प्रस्तावना को भारतीय संविधान का दर्शन कहा जाता है क्योंकि इसमें संविधान के मुख्य सिद्धांत और उद्देश्य स्पष्ट रूप से व्यक्त किए गए हैं। यह संविधान की आत्मा को व्यक्त करती है और समाज, राजनीति, और न्याय के प्रति भारतीय दृष्टिकोण को निर्धारित करती है। इसके माध्यम से भारतीय संविधान ने एक आदर्श और नैतिक मार्गदर्शन प्रस्तुत किया है, जो देश के समग्र विकास, समानता और सामाजिक न्याय की दिशा में निरंतर अग्रसर करने का कार्य करता है।

Q-2 Why the 42nd Amendment is called a revision of the Indian Constitution ?

ANSWER-

42वें संविधान संशोधन (1976) को भारतीय संविधान में एक महत्वपूर्ण पुनरीक्षण के रूप में जाना जाता है क्योंकि इसने भारतीय संविधान में कई महत्वपूर्ण और व्यापक बदलाव किए, जिनका उद्देश्य संविधान के मौलिक सिद्धांतों को और मजबूत करना, सरकार की कार्यप्रणाली में सुधार लाना, और देश के सामाजिक, राजनीतिक, और आर्थिक ढांचे को प्रगति की दिशा में ढालना था। इसे संविधान में "रिवीजन" के रूप में इसलिए माना जाता है क्योंकि इस संशोधन ने कई मौलिक बदलाव किए और कुछ नए सिद्धांतों को संविधान में शामिल किया।

42वें संशोधन के प्रमुख बदलाव

  1. संविधान की प्रस्तावना में संशोधन: 42वें संशोधन ने भारतीय संविधान की प्रस्तावना में "समाजवादी", "धर्मनिरपेक्ष", और "गणराज्य" शब्दों का समावेश किया। इन शब्दों को जोड़ने से संविधान में सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता, और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को और मजबूती मिली। इससे यह स्पष्ट हुआ कि भारतीय राज्य का उद्देश्य समानता और सामाजिक कल्याण को बढ़ावा देना है।
  2. राज्य के उद्देश्यों को स्पष्ट किया: इस संशोधन ने संविधान के भाग IV (राज्य के उद्देश्य) में बदलाव किया और राज्य के उद्देश्यों को और स्पष्ट किया। इसके अंतर्गत सामाजिक और आर्थिक न्याय, समानता, और धार्मिक सहिष्णुता के लिए नए दिशा-निर्देश शामिल किए गए।
  3. सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों की शक्ति में कमी: इस संशोधन के तहत सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों की शक्ति को सीमित किया गया। विशेष रूप से, यह संशोधन संविधान के अनुच्छेद 368 में बदलाव करते हुए यह स्पष्ट करता था कि संविधान में संशोधन करने का अधिकार संसद को है और इससे न्यायालयों के नियंत्रण का क्षेत्र कम किया गया।
  4. मौलिक कर्तव्यों का समावेश: 42वें संशोधन ने भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्यों को जोड़ा (अनुच्छेद 51A) इससे नागरिकों के कर्तव्यों को संविधान में एक स्थायी स्थान मिला और यह सुनिश्चित किया गया कि नागरिक अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने कर्तव्यों का भी पालन करें।
  5. संविधान में व्यवस्था में सुधार: इस संशोधन ने संसद के प्रभावी कार्यप्रणाली को सुनिश्चित करने के लिए कुछ बदलाव किए। इसमें राज्यों के विधान मंडलों के निर्वाचन और सांसदों के कर्तव्यों को लेकर कुछ नये प्रावधान किए गए।
  6. केंद्रीय सरकार की शक्ति में वृद्धि: इस संशोधन के अंतर्गत केंद्र सरकार की शक्ति को राज्यों के मुकाबले अधिक महत्व दिया गया। इसने यह स्पष्ट किया कि केंद्र सरकार देश के विभिन्न क्षेत्रों में अधिक प्रभावी रूप से काम करेगी, विशेष रूप से सामाजिक और आर्थिक नीति के निर्माण में।

42वें संशोधन की आलोचना

42वें संशोधन को भारतीय संविधान में एक "पुनरीक्षण" के रूप में देखा जाता है, लेकिन इसे लेकर कुछ आलोचनाएँ भी उठी थीं:

  1. सुप्रीम कोर्ट की शक्ति में हस्तक्षेप: इस संशोधन के तहत न्यायालयों की शक्ति में हस्तक्षेप किया गया, जिससे न्यायपालिका के स्वतंत्रता पर सवाल उठे। विशेष रूप से, न्यायालयों के अधिकारों को सीमित करने की आलोचना की गई थी, क्योंकि यह संविधान के मौलिक सिद्धांतों से विरोधाभासी था।
  2. संसदीय सत्ता का विस्तार: यह संशोधन संसद की शक्ति को अधिक बढ़ा देता था, जिससे यह असंतुलन उत्पन्न होता था। इसके अंतर्गत कुछ अधिकार संसद को दिए गए थे जो पहले न्यायपालिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में आते थे।
  3. जनता की राय का अभाव: 42वें संशोधन को तत्कालीन सरकार द्वारा लागू किया गया था, लेकिन इसमें जनता की राय और सहमति को पर्याप्त महत्व नहीं दिया गया। इस कारण इसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया से हटकर देखा गया था।

निष्कर्ष:

42वां संविधान संशोधन भारतीय संविधान में एक बड़ा पुनरीक्षण था क्योंकि इसने संविधान के मौलिक सिद्धांतों को संशोधित किया, नए सिद्धांत जोड़े, और सरकार की कार्यप्रणाली में कई बदलाव किए। इसने भारतीय राजनीति और प्रशासन को एक नई दिशा दी, साथ ही साथ संविधान के उद्देश्यों और नागरिकों के कर्तव्यों को स्पष्ट किया। हालांकि, इसमें किए गए कुछ बदलावों पर विवाद भी हुआ, विशेष रूप से न्यायपालिका की शक्ति में हस्तक्षेप और संसदीय शक्तियों में वृद्धि के कारण। इस संशोधन को भारतीय संविधान में एक महत्वपूर्ण मोड़ और पुनरीक्षण के रूप में देखा जाता है।

Q-3 Mention three demerits of Judicial Activism. 

ANSWER-

न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) के तीन प्रमुख दोष भारतीय संविधान और भारतीय न्यायालयों के संदर्भ में निम्नलिखित उदाहरणों के साथ समझाए जा सकते हैं:

1. विधायिका के अधिकारों का उल्लंघन:

न्यायिक सक्रियता के परिणामस्वरूप न्यायपालिका कभी-कभी विधायिका के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप कर सकती है। भारतीय संविधान के अनुसार, विधायिका का कार्य है कानून बनाना, लेकिन न्यायिक सक्रियता के कारण न्यायालयों ने कुछ मामलों में कानून बनाने का प्रयास किया।

उदाहरण:
केशवानंद भारती मामले (1973) में, सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के "बुनियादी ढांचे" (Basic Structure Doctrine) का सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसके अंतर्गत न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संविधान में कुछ ऐसे बुनियादी सिद्धांत होते हैं, जिन्हें संसद संशोधित नहीं कर सकती। इसने विधायिका की शक्ति पर प्रश्न उठाया, क्योंकि संविधान में किसी भी बदलाव का अधिकार संसद को है, लेकिन न्यायालय ने इसे सीमित कर दिया।

2. लोकतांत्रिक प्रक्रिया का उल्लंघन:

न्यायिक सक्रियता कभी-कभी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर सकती है, क्योंकि यह न्यायपालिका को विधायिका और कार्यपालिका के निर्णयों में हस्तक्षेप करने का अधिकार देती है, जो कि चुने हुए प्रतिनिधियों का काम है।

उदाहरण:
एम. नागराज मामला (2006) में, सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 16(4A) के तहत आरक्षण से संबंधित निर्णय पर पुनर्विचार किया और राज्य सरकारों को यह निर्देश दिया कि वे आरक्षण के लिए कुछ अतिरिक्त मानदंडों को लागू करें। यह न्यायालय का विधायिका और कार्यपालिका के निर्णयों में हस्तक्षेप था, जो लोकतांत्रिक निर्णय प्रक्रिया के खिलाफ था।

3. अधिकारों का अत्यधिक प्रयोग:

न्यायिक सक्रियता के कारण न्यायालय कभी-कभी अपने अधिकारों का अत्यधिक प्रयोग करते हैं, जिससे न्यायालयों के निर्णय नागरिकों के मूल अधिकारों और संविधान से परे हो सकते हैं।

उदाहरण:
राइट टू प्राइवेसी (2017) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि गोपनीयता का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित है, जिसे "जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता" के अधिकार का हिस्सा माना गया। इस फैसले ने नागरिकों को और भी व्यापक अधिकार दिए, लेकिन इससे यह भी सवाल उठे कि क्या न्यायपालिका ने विधायिका द्वारा पारित कानूनों के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण किया है।

निष्कर्ष:

न्यायिक सक्रियता भारतीय संविधान में कई बार लोकतांत्रिक प्रक्रिया, विधायिका के अधिकारों और नागरिकों के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है। जब न्यायालयों का हस्तक्षेप बढ़ता है, तो यह संविधान के मूल सिद्धांतों और लोकतांत्रिक व्यवस्था के सिद्धांतों के साथ टकराव उत्पन्न कर सकता है। हालांकि, न्यायिक सक्रियता के परिणामस्वरूप कुछ मामलों में समाज में सकारात्मक बदलाव भी आया है, लेकिन इसके दोषों का भी मूल्यांकन आवश्यक है।

Q-4 How the power of Governor to Pardon is different from the power of the President under Article 72 of the Indian Constitution ?

 

ANSWER-

भारतीय संविधान के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति की माफी देने की शक्ति (Pardon Power) में अंतर:

1. राष्ट्रपति की माफी देने की शक्ति (Article 72):

भारत के राष्ट्रपति को संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत काफी व्यापक और प्रभावी माफी देने की शक्ति दी गई है। इस शक्ति के अंतर्गत राष्ट्रपति निम्नलिखित मामलों में माफी देने, सजा को माफ करने, सजा को कम करने, या सजा को बदलने का अधिकार रखते हैं:

  • किसी दोषी व्यक्ति की सजा को माफ करना या सजा को कम करना
  • यह शक्ति राष्ट्रपति को उस व्यक्ति के किसी भी अपराध के लिए सजा माफ करने या बदलने का अधिकार देती है, चाहे वह किसी भी न्यायिक प्रक्रिया में दोषी पाया गया हो।
  • यह शक्ति राज्य या केंद्र के मामलों में लागू हो सकती है।
  • राष्ट्रपति की माफी देने की शक्ति केंद्र सरकार के मामलों में सबसे अधिक प्रासंगिक होती है।

उदाहरण:
राष्ट्रपति द्वारा अपराधी को माफी देने का एक प्रसिद्ध उदाहरण अफजल गुरु का है, जिनकी सजा को माफ करने की याचिका राष्ट्रपति के पास थी, लेकिन उन्होंने इसे खारिज कर दिया।

2. राज्यपाल की माफी देने की शक्ति (Article 161):

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत राज्यपाल को राज्य के मामलों में माफी देने की शक्ति दी गई है। राज्यपाल के पास राष्ट्रपति की तुलना में यह शक्ति सीमित होती है और यह केवल उन मामलों में लागू होती है, जो राज्य के दायरे में आते हैं।

  • राज्यपाल केवल राज्य के अपराधों के लिए माफी दे सकते हैं।
  • यह शक्ति राज्य सरकार की सिफारिश पर आधारित होती है और इसके लिए राष्ट्रपति की अनुमति की आवश्यकता नहीं होती
  • राज्यपाल की माफी देने की शक्ति में सजा को माफ करने, सजा को कम करने, या सजा बदलने की शक्ति शामिल है, लेकिन यह केवल राज्य के अधिकार क्षेत्र के अपराधों के लिए ही लागू होती है।

उदाहरण:
एक राज्य में किसी व्यक्ति को हत्या के आरोप में सजा दी जाती है, और राज्य सरकार उसकी सजा को माफ करने या कम करने के लिए राज्यपाल से अनुरोध करती है, तो राज्यपाल इस पर निर्णय ले सकते हैं।

मुख्य अंतर:

  1. क्षेत्राधिकार (Jurisdiction):
    • राष्ट्रपति के पास केंद्र के मामलों में माफी देने की शक्ति होती है। यह शक्ति केंद्र सरकार के मामलों में प्रभावी होती है।
    • राज्यपाल के पास केवल राज्य के मामलों में माफी देने की शक्ति होती है, और यह राज्य सरकार के मामलों में लागू होती है।
  2. प्रोसेस (Process):
    • राष्ट्रपति के मामले में, माफी देने की प्रक्रिया केंद्र सरकार द्वारा की जाती है और राष्ट्रपति इसे लागू करते हैं।
    • राज्यपाल की माफी प्रक्रिया राज्य सरकार की सिफारिश पर आधारित होती है।
  3. सीमाएं (Limitations):
    • राष्ट्रपति के पास यह शक्ति किसी भी न्यायिक मामले में लागू हो सकती है, जिसमें सजा दी गई हो।
    • राज्यपाल की माफी देने की शक्ति राज्य के दायरे में सीमित होती है और यह केवल राज्य के अपराधों के लिए है।

निष्कर्ष:

संविधान के अनुच्छेद 72 और 161 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल को माफी देने की शक्ति प्रदान की गई है, लेकिन दोनों के अधिकार क्षेत्र और सीमाएं अलग-अलग हैं। राष्ट्रपति के पास यह शक्ति केंद्र के मामलों में है, जबकि राज्यपाल के पास यह शक्ति राज्य के मामलों में है।

Q-5 "Transparency and Accountability are complementary to each other." Comment•

 

ANSWER-

पारदर्शिता और जवाबदेही दोनों ही लोकतांत्रिक व्यवस्था के मजबूत स्तंभ हैं, और यह दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, क्योंकि जब तक किसी प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं होती, तब तक जवाबदेही का कोई अर्थ नहीं होता, और जब तक जवाबदेही सुनिश्चित नहीं होती, तब तक पारदर्शिता का पूरा प्रभाव नहीं पड़ता। दोनों तत्व एक-दूसरे को प्रोत्साहित करते हैं और लोकतांत्रिक शासन, प्रशासनिक कार्यों, और सार्वजनिक जीवन में सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

1. पारदर्शिता (Transparency):

पारदर्शिता का मतलब है सरकार, संगठन, या किसी भी संस्था की कार्यप्रणाली को स्पष्ट और खुले तौर पर प्रदर्शित करना, ताकि लोग यह जान सकें कि निर्णय कैसे लिए जा रहे हैं और संसाधनों का उपयोग किस प्रकार किया जा रहा है। पारदर्शिता से भ्रष्टाचार और अन्य गलत प्रथाओं को रोकने में मदद मिलती है।

उदाहरण:

  • सूचना का अधिकार (RTI) कानून, भारत में पारदर्शिता की एक मिसाल है। यह नागरिकों को सरकारी दस्तावेज़ों और फैसलों तक पहुंच प्रदान करता है, जिससे सरकारी कार्यों में पारदर्शिता आती है।

2. जवाबदेही (Accountability):

जवाबदेही का अर्थ है कि किसी भी व्यक्ति या संस्था को अपनी क्रियाओं के लिए जिम्मेदार ठहराया जाए। जब कोई सरकार या संगठन अपनी जिम्मेदारियों को निभाता है, तो उसे अपनी क्रियावली का हिसाब देना पड़ता है। जवाबदेही यह सुनिश्चित करती है कि पारदर्शी तरीके से कार्य करने के बावजूद किसी की गलतियों को नजरअंदाज नहीं किया जाएगा।

उदाहरण:

  • लोकपाल और लोकायुक्त संस्थाएँ जवाबदेही के संस्थान हैं जो सार्वजनिक अधिकारियों और कर्मचारियों को उनके कार्यों के लिए जिम्मेदार ठहराती हैं, ताकि कोई भी व्यक्ति या समूह अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर सके।

पारदर्शिता और जवाबदेही का संबंध:

  1. पारदर्शिता से जवाबदेही की सुदृढ़ता:
    जब कार्यों में पारदर्शिता होती है, तो यह नागरिकों को सरकार के कार्यों और निर्णयों के बारे में जानकारी प्रदान करती है। इसका मतलब यह है कि यदि कोई व्यक्ति या संस्था कोई गलत कार्य करती है, तो उसे आसानी से पहचाना जा सकता है और जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। यह जवाबदेही को सुनिश्चित करता है।

उदाहरण:
यदि सरकारी विभाग पारदर्शी तरीके से बजट का वितरण और खर्च दिखाता है, तो यह सुनिश्चित होता है कि कोई भी विभागीय अधिकारी गलत तरीके से पैसा नहीं हड़प सकता। इस तरह पारदर्शिता जवाबदेही का समर्थन करती है।

  1. जवाबदेही से पारदर्शिता में सुधार:
    जब संस्थाएँ और व्यक्तियाँ जवाबदेह होती हैं, तो उन्हें अपने कार्यों के बारे में खुलकर बताना पड़ता है, जिससे पारदर्शिता में वृद्धि होती है। जवाबदेही की भावना यह सुनिश्चित करती है कि सभी कार्य ईमानदारी से किए जाएं और हर कदम पर जवाब देना पड़े।

उदाहरण:
यदि एक सांसद संसद में अपने कार्यों की नियमित रिपोर्ट पेश करता है और उसका जवाब देने के लिए तैयार रहता है, तो यह केवल उसकी जिम्मेदारी को स्पष्ट करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि सभी कार्य पारदर्शी तरीके से किए गए हैं।

निष्कर्ष:

पारदर्शिता और जवाबदेही एक-दूसरे के पूरक हैं, क्योंकि पारदर्शिता से कार्यों में स्पष्टता आती है और जवाबदेही से इन कार्यों के लिए जिम्मेदारी तय होती है। एक के बिना दूसरा प्रभावी रूप से काम नहीं कर सकता। अगर दोनों को सही तरीके से लागू किया जाए, तो यह लोकतंत्र और शासन की गुणवत्ता में सुधार ला सकता है, और नागरिकों का विश्वास सरकार और संस्थाओं में बढ़ सकता है।

Q-6 Write a analytical note on Self Help Group's composition and their functions

ANSWER-

स्व सहायता समूह (Self-Help Groups - SHGs) का संरचना और उनके कार्यों पर विश्लेषणात्मक नोट

1. स्व सहायता समूह (Self-Help Groups - SHGs) का संरचना:

स्व सहायता समूह (SHGs) भारतीय समाज में एक सामूहिक आर्थिक संगठन का रूप हैं, जो सामाजिक, आर्थिक और विकासात्मक उद्देश्यों के लिए कार्य करते हैं। इन समूहों की संरचना सरल और समुदाय-आधारित होती है, और यह महिला सशक्तिकरण और गरीबी उन्मूलन के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। SHGs का उद्देश्य एकजुटता और साझेदारी के आधार पर अपने सदस्यों को आर्थिक सहायता और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है।

·         सदस्यता: एक SHG में आमतौर पर 10 से 20 सदस्य होते हैं, जो समान सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आते हैं, खासकर निम्न आय वर्ग और पिछड़े क्षेत्रों के लोग। SHGs में सदस्य अक्सर महिलाएँ होती हैं, क्योंकि यह महिलाओं के सशक्तिकरण और सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए एक प्रभावी तरीका साबित हुआ है।

·         संगठन और संरचना: SHG के पास एक साधारण संरचना होती है जिसमें एक अध्यक्ष, सचिव, और कोषाध्यक्ष होते हैं। इसके अलावा, समूह के लिए नियमित बैठकें आयोजित की जाती हैं, जिसमें सदस्य अपनी समस्याओं, सुझावों और योजनाओं पर चर्चा करते हैं।

·         वित्तीय व्यवस्था: SHGs की वित्तीय व्यवस्था में प्रत्येक सदस्य को नियमित रूप से एक सावधि योगदान (saving contribution) करना होता है, जो समूह के फंड में जमा होता है। समय-समय पर इस फंड से सदस्यों को ऋण (loan) भी दिया जाता है।

2. स्व सहायता समूहों के कार्य:

स्व सहायता समूहों के कार्यों का उद्देश्य केवल वित्तीय सहायता प्रदान करना है, बल्कि इसके माध्यम से सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन लाना भी है। इन समूहों के कार्य निम्नलिखित हैं:

(i) वित्तीय सहायता और ऋण वितरण:

SHGs अपने सदस्यों को ब्याज मुक्त या कम ब्याज दरों पर छोटे ऋण प्रदान करती हैं। यह ऋण आमतौर पर कृषि, घरेलू उद्योग, व्यापार या शिक्षा के लिए होता है। समूह से सदस्य अपनी आवश्यकता के अनुसार लोन प्राप्त कर सकते हैं और इसे निर्धारित अवधि में चुकता करते हैं। इस प्रक्रिया में बैंकिंग साक्षरता और वित्तीय समावेशन को बढ़ावा मिलता है।

उदाहरण:
भारत में एनआरएलएम (National Rural Livelihood Mission) जैसे कार्यक्रम SHGs के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को सशक्त बनाने का काम करते हैं, जिनके पास पारंपरिक रूप से बैंकिंग सेवाओं तक पहुंच नहीं होती।

(ii) महिला सशक्तिकरण (Women Empowerment):

SHGs महिलाओं को अपने जीवन के निर्णयों में स्वतंत्रता और सशक्तिकरण प्रदान करते हैं। महिलाओं को समूहों में एकत्रित होने का अवसर मिलता है, जिससे उनके आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। इसके साथ ही, SHGs महिलाओं को आर्थिक स्वतंत्रता और सामाजिक पहचान दिलाने में मदद करते हैं।

उदाहरण:
सेल्फ-हेल्प ग्रुप्स के माध्यम से कई महिलाएं घर के बाहर छोटे व्यवसाय शुरू करती हैं जैसे कि सिलाई, बुनाई, हस्तशिल्प, और खाद्य उत्पादों का निर्माण, जिससे उनका आर्थिक विकास हुआ है और परिवार में उनकी स्थिति में सुधार हुआ है।

(iii) सामाजिक उत्थान और कल्याण (Social Upliftment and Welfare):

SHGs में सदस्य एक दूसरे के साथ समाज सेवा और सामाजिक कार्यों में भी भाग लेते हैं। उदाहरण के लिए, स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण, स्वच्छता और जन जागरूकता के मुद्दों पर चर्चा की जाती है। समूह स्थानीय समुदाय में सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए भी काम करता है।

उदाहरण:
कुछ SHGs स्वास्थ्य और स्वच्छता के लिए काम करते हैं, जैसे कि स्वच्छता अभियान, टीकाकरण अभियान और आधुनिक स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में जागरूकता फैलाना।

(iv) सामूहिक प्रयास और सामुदायिक विकास (Collective Effort and Community Development):

SHGs सामूहिक प्रयासों के माध्यम से समुदाय विकास को बढ़ावा देती हैं। समूह के सदस्य एकजुट होकर अपने गांवों या समुदायों में आवश्यक सुविधाओं जैसे कि सड़क, जल आपूर्ति, शिक्षा संस्थान आदि की स्थिति सुधारने के लिए प्रयास करते हैं।

उदाहरण:
कुछ SHGs सामूहिक रूप से जल संरक्षण के प्रोजेक्ट्स पर काम करती हैं या ग्रामीण क्षेत्रों में जलाशयों का निर्माण करती हैं।

(v) पारदर्शिता और जवाबदेही (Transparency and Accountability):

SHGs में निर्णय लेने की प्रक्रिया सार्वजनिक और पारदर्शी होती है, जहां हर सदस्य का विचार और योगदान महत्वपूर्ण होता है। इसके अलावा, समूह के कोषाध्यक्ष और सचिव की जिम्मेदारी होती है कि वे वित्तीय लेन-देन और संसाधनों का सही तरीके से प्रबंधन करें। यह जवाबदेही समूह के भीतर विश्वास और पारदर्शिता को बढ़ावा देती है।

निष्कर्ष:

स्व सहायता समूह (SHGs) भारत में सामाजिक और आर्थिक विकास की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन समूहों के द्वारा महिलाओं का सशक्तिकरण, आर्थिक स्वतंत्रता, सामाजिक बदलाव, और सामूहिक प्रयासों के माध्यम से समुदाय में सकारात्मक परिवर्तन लाने में मदद मिल रही है। SHGs की संरचना और कार्यों को देखे तो यह स्पष्ट है कि वे केवल वित्तीय सहायता प्रदान करते हैं, बल्कि सामाजिक बदलाव और समुदाय के समग्र विकास में भी योगदान देते हैं।

Q-7 The application of Information and Communication Technology (I.C.T.) is for delivering government service. " Discuss

ANSWER-

सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (I.C.T.) का सरकारी सेवाओं के वितरण में उपयोग

सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (ICT) का उपयोग आज के समय में सरकारी सेवाओं के वितरण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। यह केवल सरकार की कार्यकुशलता में सुधार करता है, बल्कि नागरिकों को तेजी से और अधिक पारदर्शी तरीके से सेवाएं उपलब्ध कराता है। ICT के माध्यम से सरकार प्रशासनिक कार्यों को डिजिटलीकृत करती है, जिससे सरकारी प्रक्रियाओं को अधिक प्रभावी, पारदर्शी और नागरिकों के लिए सुलभ बनाया जा सकता है।

ICT का सरकारी सेवाओं के वितरण में योगदान:

1. डिजिटलीकरण और ऑनलाइन सेवाएं: ICT ने सरकारी सेवाओं के डिजिटलीकरण की प्रक्रिया को तेजी से आगे बढ़ाया है। अब नागरिकों को विभिन्न सरकारी सेवाओं के लिए लंबी कतारों में खड़ा नहीं रहना पड़ता। सेवाएं जैसे- पेंशन, राशन, आय प्रमाण पत्र, जन्म प्रमाण पत्र, गाड़ी रजिस्ट्रेशन, और शिक्षा संबंधित दस्तावेज ऑनलाइन उपलब्ध हैं।

उदाहरण:

  • मेरा जन्म प्रमाणपत्र पोर्टल: कई राज्य सरकारों ने जन्म प्रमाण पत्र को ऑनलाइन प्रदान करने के लिए ICT का उपयोग किया है, जिससे नागरिक घर बैठे अपने प्रमाण पत्र प्राप्त कर सकते हैं।
  • आधार कार्ड: आधार, जो नागरिकों की पहचान का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है, इसे डिजिटलीकृत किया गया है और इसके माध्यम से कई सरकारी योजनाओं का लाभ सीधे नागरिकों तक पहुंचता है।

2. e-Governance और प्रशासन में सुधार: ICT के माध्यम से सरकार ने e-Governance की शुरुआत की है, जिससे प्रशासनिक कार्यों की गति तेज हुई है और पारदर्शिता सुनिश्चित हुई है। यह प्रक्रिया सरकारी सेवाओं में समय की बचत, बेहतर वितरण और भ्रष्टाचार में कमी को बढ़ावा देती है।

उदाहरण:

  • आधिकारिक दस्तावेजों का डिजिटल प्रबंधन: सरकारी कार्यालयों में अब दस्तावेजों को डिजिटल रूप से संग्रहित और प्रबंधित किया जाता है, जिससे कार्यों की गति में सुधार होता है और कागजी काम कम होता है।
  • स्वास्थ्य क्षेत्र: आयुष्मान भारत योजना जैसी सरकारी योजनाओं के तहत स्वास्थ्य सेवाओं का वितरण ICT के माध्यम से किया जा रहा है। इस योजना के तहत गरीब नागरिकों को मुफ्त स्वास्थ्य सेवा प्रदान की जा रही है, और इसकी निगरानी भी डिजिटल तरीके से की जा रही है।

3. सूचना और सार्वजनिक जागरूकता: ICT का उपयोग सरकारी योजनाओं, कार्यक्रमों और नीतियों के बारे में जनता को जागरूक करने के लिए भी किया जाता है। डिजिटल प्लेटफॉर्म्स जैसे वेबसाइट्स, सोशल मीडिया और मोबाइल ऐप्स के माध्यम से सरकार नागरिकों को योजनाओं की जानकारी देती है और उनसे फीडबैक प्राप्त करती है। यह नागरिकों को अपनी आवश्यकताओं और समस्याओं के बारे में सरकार से संपर्क करने में सक्षम बनाता है।

उदाहरण:

  • प्रधानमंत्री जन धन योजना: इस योजना के बारे में जानकारी देने के लिए सरकारी वेबसाइट, मोबाइल ऐप्स, और सोशल मीडिया का उपयोग किया गया। नागरिकों को योजना के लाभों और पात्रता के बारे में स्पष्ट जानकारी मिली, और इसके जरिए गरीबों के बैंक खाते खोले गए।

4. -लर्निंग और शिक्षा: ICT का उपयोग शिक्षा के क्षेत्र में भी व्यापक रूप से किया जा रहा है। सरकारी स्कूलों और विश्वविद्यालयों में डिजिटल शिक्षा के माध्यम से विद्यार्थियों को उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा प्रदान की जा रही है। ऑनलाइन शिक्षा, वीडियो लेक्चर, वेबिनार और -बुक्स के माध्यम से विद्यार्थियों की पहुंच बेहतर हुई है।

उदाहरण:

  • स्वयं पोर्टल: स्वयं (SWAYAM) एक राष्ट्रीय ऑनलाइन शिक्षा मंच है जो विश्वविद्यालयों और कॉलेजों द्वारा दी जाने वाली मुफ्त शिक्षा को डिजिटल रूप से नागरिकों तक पहुंचाता है।

5. भ्रष्टाचार में कमी और पारदर्शिता: ICT के माध्यम से सरकारी सेवाओं में पारदर्शिता बढ़ी है। प्रक्रियाओं को डिजिटलीकृत करके, यह सुनिश्चित किया गया है कि सरकारी कामकाज में भ्रष्टाचार को कम किया जा सके और सभी निर्णय और कार्य सार्वजनिक तौर पर निगरानी योग्य हों।

उदाहरण:

  • पब्लिक फाइनेंसियल मैनेजमेंट सिस्टम (PFMS): यह प्रणाली सरकारी बजट और निधियों के खर्च की निगरानी करती है, जिससे सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की गतिविधियों पर पारदर्शिता आती है और भ्रष्टाचार की संभावना कम होती है।

ICT के माध्यम से सरकार की उपलब्धियाँ:

  1. समानता और समावेशिता: ICT ने सरकारी सेवाओं को दूर-दराज के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों तक भी पहुंचाया है, विशेषकर ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में।
  2. समय की बचत और दक्षता: सरकार अब डिजिटल माध्यमों से त्वरित और सही फैसले ले सकती है, जिससे नागरिकों के समय की बचत होती है।
  3. पारदर्शिता और जवाबदेही: ICT के माध्यम से सरकारी कामकाज में पारदर्शिता आई है, जिससे नागरिक अपनी सरकार से सीधे जुड़ सकते हैं और शिकायतों का समाधान करवा सकते हैं।

निष्कर्ष:

सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (ICT) का सरकारी सेवाओं में उपयोग सरकारी कार्यों की दक्षता, पारदर्शिता और उपलब्धता में सुधार लाता है। यह प्रक्रिया केवल सरकारी सेवाओं को नागरिकों तक पहुंचाने का एक प्रभावी तरीका है, बल्कि यह नागरिकों और सरकार के बीच विश्वास की दीवार को भी मजबूत करता है। डिजिटल भारत के तहत ICT का बढ़ता हुआ उपयोग समाज के विभिन्न वर्गों तक सरकारी सेवाओं को आसानी से पहुँचाने में मदद कर रहा है, जो विकास की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है।

Q-8 The failure of 'SAARC forced India to strengthen 'BIMSTEC '. Explain.

ANSWER-

'SAARC' की विफलता ने भारत को 'BIMSTEC' को मजबूत करने के लिए मजबूर कियाविस्तार से व्याख्या

1. SAARC (South Asian Association for Regional Cooperation) की विफलता: SAARC दक्षिण एशिया में एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय संगठन था, जिसे 1985 में स्थापित किया गया था। इसका उद्देश्य दक्षिण एशिया के देशों के बीच आर्थिक, सांस्कृतिक, और राजनीतिक सहयोग को बढ़ावा देना था। इसके सदस्य देशों में अफगानिस्तान, बांगलादेश, भूटान, भारत, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका शामिल थे।

हालाँकि, SAARC समय के साथ कुछ महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करने में असफल रहा:

·         पाकिस्तान के साथ तनाव: SAARC के भीतर पाकिस्तान और भारत के बीच लगातार सीमा विवादों और राजनीतिक तनावों ने संगठन को असफल बना दिया। पाकिस्तान द्वारा भारत विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देना और आतंकवादियों के समर्थन के कारण संगठन के मंच पर सहयोग में रुकावट आई।

·         राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव: SAARC में विभिन्न देशों के राजनीतिक हितों में टकराव था, जिससे संगठन के निर्णय लेने की प्रक्रिया कमजोर हो गई। देशों के आपसी मतभेदों ने क्षेत्रीय सहयोग को प्रभावित किया।

·         सशक्त निर्णय प्रक्रिया का अभाव: SAARC में एक प्रभावी निर्णय लेने की प्रणाली का अभाव था, जिसके कारण अनेक योजनाओं को क्रियान्वित करने में कठिनाई आती थी।

2. BIMSTEC का गठन और भारत की रणनीतिक जरूरतें: 'BIMSTEC' (Bay of Bengal Initiative for Multi-Sectoral Technical and Economic Cooperation) का गठन 1997 में किया गया था। यह संगठन बंगाल की खाड़ी से जुड़े देशोंभारत, बांगलादेश, श्रीलंका, थाईलैंड, म्यांमार, भूटान, और नेपाल का समूह है। BIMSTEC के गठन का उद्देश्य क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देना, जलवायु परिवर्तन, व्यापार, सुरक्षा, और अन्य क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाना था।

भारत ने SAARC की विफलता के बाद BIMSTEC को एक प्रभावी और स्थिर क्षेत्रीय मंच के रूप में अपनाया। BIMSTEC में भारत को कुछ महत्वपूर्ण फायदे नजर आए:

·         भारत और पाकिस्तान का विभाजन: SAARC में पाकिस्तान का हस्तक्षेप और विरोध के कारण भारत को अपने सहयोगियों के साथ स्थिर और प्रासंगिक सहयोग की आवश्यकता थी। BIMSTEC में पाकिस्तान को शामिल नहीं किया गया, जिससे भारत के लिए यह एक अधिक सशक्त मंच बन गया, जिसमें क्षेत्रीय विकास और सहयोग के मुद्दों पर उसकी प्राथमिकता अधिक प्रभावी ढंग से लागू की जा सकती थी।

·         आर्थिक और क्षेत्रीय सुरक्षा: BIMSTEC ने दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों को एक साझा मंच पर लाकर क्षेत्रीय व्यापार और सुरक्षा संबंधी मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया। भारत ने BIMSTEC के माध्यम से बंगाल की खाड़ी के क्षेत्र में अपने व्यापार और रणनीतिक हितों को बढ़ावा देने का प्रयास किया।

·         नवीनतम मुद्दों पर ध्यान केंद्रित: BIMSTEC में भारत ने जलवायु परिवर्तन, समुद्री सुरक्षा, व्यापार और कनेक्टिविटी जैसे समकालीन मुद्दों पर अधिक ध्यान केंद्रित किया। यह भारत की एक प्रमुख प्राथमिकता थी, जो SAARC में नहीं मिल रही थी।

3. BIMSTEC को मजबूत करने के कारण:

भारत ने निम्नलिखित कारणों से BIMSTEC को मजबूत किया:

·         आर्थिक विकास और कनेक्टिविटी: BIMSTEC के सदस्य देशों के साथ भारत का व्यापारिक संबंध बढ़ाना और कनेक्टिविटी परियोजनाओं को प्रोत्साहित करना, जैसे कि भूटान, नेपाल, बांगलादेश और म्यांमार के साथ व्यापार और कनेक्टिविटी में सुधार।

·         सांस्कृतिक और रणनीतिक सहयोग: BIMSTEC एक प्लेटफार्म प्रदान करता है, जिसके माध्यम से भारत अपने सांस्कृतिक और रणनीतिक कनेक्शन को सुदृढ़ कर सकता है, विशेष रूप से भूटान, नेपाल, बांगलादेश और श्रीलंका के साथ। ये देशों के साथ भारत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध बहुत मजबूत हैं।

·         महत्वपूर्ण क्षेत्रीय सुरक्षा पहल: BIMSTEC क्षेत्रीय सुरक्षा के क्षेत्र में आतंकवाद, समुद्री सुरक्षा, और मानवीय सहायता जैसे मुद्दों पर सहयोग प्रदान करता है। भारत के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि समुद्री सुरक्षा और आतंकवाद के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय सहयोग क्षेत्रीय सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक है।

4. SAARC और BIMSTEC की तुलना:

·         SAARC में भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव और राजनीतिक मतभेदों के कारण योजनाओं को लागू करने में कठिनाई होती थी। इसके विपरीत, BIMSTEC में पाकिस्तान का कोई स्थान नहीं है, और यह भारत को अपने समकक्ष देशों के साथ सहयोग बढ़ाने का एक साफ और स्पष्ट अवसर प्रदान करता है।

·         SAARC की कार्यप्रणाली में जो जटिलताएँ थीं, उन समस्याओं को BIMSTEC में सरल और अधिक कुशल तरीके से हल किया जा सकता है।

निष्कर्ष: SAARC की विफलता ने भारत को BIMSTEC जैसे संगठनों में अधिक ध्यान केंद्रित करने के लिए मजबूर किया, क्योंकि BIMSTEC में अधिक समन्वय और स्थिरता की संभावना थी। भारत ने BIMSTEC के माध्यम से अपनी आर्थिक, सांस्कृतिक, और सुरक्षा प्राथमिकताओं को नया आकार दिया, और क्षेत्रीय स्तर पर प्रभावी सहयोग के नए रास्ते खोले। इसने भारत के लिए दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया दोनों में अपनी भूमिका को पुनः स्थापित करने का अवसर प्रदान किया।

Q-9 Explain the rationale behind India's involvement in QUAD.

 

ANSWER-

भारत की QUAD (Quadrilateral Security Dialogue) में भागीदारी का तर्क

QUAD (Quadrilateral Security Dialogue) एक रणनीतिक वार्ता समूह है, जिसमें चार देशोंभारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया, और अमेरिकाका समावेश है। यह समूह क्षेत्रीय सुरक्षा, स्वतंत्रता, और कानून-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को बढ़ावा देने के उद्देश्य से 2007 में अस्तित्व में आया था। QUAD का गठन विशेष रूप से Indo-Pacific क्षेत्र के समग्र स्थिरता और विकास को ध्यान में रखते हुए किया गया है। भारत की QUAD में भागीदारी के पीछे कई महत्वपूर्ण रणनीतिक, आर्थिक, और सुरक्षा संबंधी तर्क हैं:

1. समुद्री सुरक्षा और स्वतंत्रता का संरक्षण:

भारत के लिए, Indo-Pacific क्षेत्र एक प्रमुख रणनीतिक क्षेत्र है, जिसमें महत्वपूर्ण समुद्री मार्ग, समुद्री व्यापार और आपूर्ति श्रृंखलाएँ हैं। भारतीय महासागर के माध्यम से बड़े पैमाने पर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार होता है। QUAD के सदस्य देशों के साथ मिलकर भारत, समुद्री स्वतंत्रता, समुद्री सुरक्षा, और कानून-आधारित आदेश की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध है।

  • समुद्री मार्गों पर नियंत्रण: क्वाड के साथ साझेदारी के माध्यम से, भारत यह सुनिश्चित कर सकता है कि समुद्री मार्गों पर किसी प्रकार का अवैध कब्जा, आतंकवाद या दबाव नहीं बने। यह खासकर चीन द्वारा दक्षिण चीन सागर में किए जा रहे सैन्यीकरण के संदर्भ में महत्वपूर्ण है, जिससे भारत और अन्य देशों के समुद्री मार्गों पर खतरा बढ़ता है।

2. चीन के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ रणनीतिक संतुलन:

चीन का बढ़ता प्रभाव विशेष रूप से Indo-Pacific और साउथ चाइना सी क्षेत्र में भारत और अन्य देशों के लिए चिंता का कारण बनता जा रहा है। चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत चीन ने कई देशों में निवेश किया है और वहां अपनी उपस्थिति बढ़ाई है। इसके साथ ही चीन ने इन क्षेत्रों में सैन्य आधारों और रणनीतिक नियंत्रण की दिशा में भी कदम बढ़ाए हैं।

QUAD के माध्यम से भारत इन देशों के साथ मिलकर चीन के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करना चाहता है और एक सशक्त काउंटर बैलेंस तैयार करना चाहता है। QUAD, भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के साथ चीन के प्रभाव को सीमित करने में सहायक है।

3. आर्थिक और तकनीकी सहयोग:

भारत के लिए QUAD के साथ सहयोग का एक महत्वपूर्ण पक्ष आर्थिक और तकनीकी सहयोग है। QUAD देशों के बीच साझा मूल्य, लोकतंत्र और स्वतंत्रता की विचारधारा को बढ़ावा देने के साथ-साथ व्यापार, निवेश, और तकनीकी नवाचार में सहयोग बढ़ रहा है।

  • विकसित तकनीकी साझेदारी: भारत को क्वाड के माध्यम से स्मार्ट शहर, साइबर सुरक्षा, ऊर्जा, और बुनियादी ढांचे के विकास में बेहतर तकनीकी साझेदारी मिल सकती है।
  • विकसित अर्थव्यवस्थाओं के साथ सहयोग: अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसी विकसित अर्थव्यवस्थाओं के साथ मिलकर भारत अपने विकसित व्यापार और निवेश नेटवर्क को और मजबूत कर सकता है।

4. भारत की वैश्विक भूमिका और प्रभाव:

भारत के लिए QUAD में भागीदारी, वैश्विक शक्ति के रूप में अपनी स्थिति को बढ़ावा देने का एक अवसर है। यह उसे अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अधिक प्रभावी और सशक्त बनाता है, और उसे अपने रक्षा और कूटनीतिक हितों की रक्षा में मदद करता है।

  • कूटनीतिक ताकत: QUAD के माध्यम से भारत को एक प्रभावशाली कूटनीतिक मंच मिलता है, जो उसे दक्षिण एशिया और Indo-Pacific क्षेत्र में अपनी नीति निर्धारण और सहयोगात्मक रिश्तों को बढ़ाने में मदद करता है।

5. आतंकवाद और सुरक्षा सहयोग:

QUAD के सदस्य देशों के बीच सुरक्षा सहयोग और आतंकवाद से लड़ाई भी एक महत्वपूर्ण पहलू है। आतंकवाद, खासकर पाकिस्तान और चीन के समर्थन से होने वाली गतिविधियों, क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए एक बड़ी चुनौती हैं। QUAD देशों के साथ सुरक्षा क्षेत्र में साझेदारी से भारत को आतंकवाद के खिलाफ और शांति-स्थापना के प्रयासों में सहयोग मिलता है।

  • सुरक्षा और रक्षा सहयोग: QUAD के देशों के साथ भारत को साझा सुरक्षा और दुनिया भर में आतंकवादियों का मुकाबला करने के लिए रणनीतिक साझेदारी मिलती है। यह उसे आतंकी गतिविधियों को नियंत्रित करने और क्षेत्रीय सुरक्षा को बढ़ावा देने में मदद करता है।

6. क्लाइमेट चेंज और पर्यावरणीय मुद्दे:

QUAD देशों के बीच पर्यावरणीय मुद्दों पर भी सहयोग बढ़ रहा है, विशेष रूप से क्लाइमेट चेंज और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण पर। भारत इन मुद्दों पर अपने साझेदार देशों के साथ मिलकर काम कर सकता है और पर्यावरणीय संरक्षण की दिशा में कदम उठा सकता है।

  • क्लाइमेट चेंज और ग्रीन एनर्जी: भारत को क्वाड के साथ मिलकर सतत विकास और नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में भी सहयोग मिलता है।

निष्कर्ष:

भारत की QUAD में भागीदारी का मुख्य तर्क क्षेत्रीय सुरक्षा, चीन के प्रभाव का मुकाबला करने, आर्थिक सहयोग, और वैश्विक कूटनीतिक ताकत को बढ़ाने पर केंद्रित है। भारत, QUAD के माध्यम से, एक मजबूत सुरक्षा और कूटनीतिक मंच स्थापित कर रहा है, जिससे वह Indo-Pacific क्षेत्र में अपने प्रभाव को बढ़ा सकता है और वैश्विक शक्ति के रूप में अपनी स्थिति को और मजबूत कर सकता है।

Q-10 What is the significance of India's Presidency in G-20 ? Discuss.

ANSWER-

भारत की G-20 की अध्यक्षता का महत्व

G-20 (Group of Twenty) एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय मंच है जिसमें दुनिया की 19 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ और यूरोपीय संघ शामिल हैं। G-20 का उद्देश्य वैश्विक आर्थिक स्थिरता, व्यापार, निवेश, और विकास को बढ़ावा देना है। भारत ने 2023 में G-20 की अध्यक्षता संभाली, और इस भूमिका के तहत भारत को वैश्विक राजनीति, अर्थव्यवस्था और नीति में महत्वपूर्ण प्रभाव डालने का अवसर प्राप्त हुआ। भारत की G-20 अध्यक्षता का महत्व कई स्तरों पर विस्तृत रूप से देखा जा सकता है।

1. वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत का नेतृत्व

भारत की G-20 अध्यक्षता के दौरान, भारत को वैश्विक आर्थिक स्थिरता, पुनरुद्धार और विकास के लिए नेतृत्व प्रदान करने का अवसर मिला। विशेष रूप से कोविड-19 महामारी के बाद, दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएँ पुनर्निर्माण और सुधार की प्रक्रिया में हैं। भारत ने इस अवसर का उपयोग करते हुए, आर्थिक सहयोग और विकास पर ध्यान केंद्रित किया।

  • भारत का विकास मॉडल: भारत ने अपनी अध्यक्षता के दौरान एक समावेशी, सतत और आत्मनिर्भर विकास मॉडल को बढ़ावा दिया। भारत ने वैश्विक वित्तीय संस्थानों से सुधार और गहरे आर्थिक सहयोग की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाने की बात की, जिससे वैश्विक संकटों का मुकाबला किया जा सके।

2. विकसित और विकासशील देशों के बीच संतुलन

G-20 में विश्व के सबसे विकसित और विकासशील देशों दोनों का प्रतिनिधित्व है, और भारत की अध्यक्षता में, भारत ने इस मंच का उपयोग विकसित और विकासशील देशों के बीच संतुलन बनाने के लिए किया। भारत ने विकासशील देशों के लिए वैश्विक वित्तीय सहायता की मांग की और इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया। भारत ने G-20 में विकासशील देशों की आवाज़ को प्रमुखता देने का प्रयास किया।

  • संगठित आर्थिक सहयोग: भारत ने संगठन के भीतर सुधारों की आवश्यकता पर बल दिया, जिसमें विकासशील देशों के लिए संसाधन, समर्थन, और व्यापार की अधिकतम स्वतंत्रता शामिल थी।

3. जलवायु परिवर्तन और सतत विकास

भारत ने G-20 की अध्यक्षता के दौरान जलवायु परिवर्तन और सतत विकास जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को एजेंडे में शामिल किया। भारत का उद्देश्य था कि विकसित और विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के मुकाबले समान रूप से जिम्मेदार ठहराया जाए और सभी देशों को इसमें योगदान देने के लिए प्रेरित किया जाए।

  • स्वच्छ ऊर्जा का समर्थन: भारत ने नवीकरणीय ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा दिया और विकासशील देशों को स्वच्छ और सस्ती ऊर्जा प्रदान करने के लिए वैश्विक सहयोग बढ़ाने की दिशा में काम किया।
  • सतत विकास लक्ष्यों की ओर कदम: भारत ने G-20 के मंच का उपयोग करके सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) को प्राप्त करने के लिए देशों के बीच समन्वय स्थापित किया।

4. वैश्विक स्वास्थ्य और महामारी प्रबंधन

कोविड-19 महामारी के बाद, स्वास्थ्य के क्षेत्र में वैश्विक सहयोग की अत्यधिक आवश्यकता महसूस की गई। भारत ने G-20 के तहत वैश्विक स्वास्थ्य प्रणाली को सुधारने और भविष्य में स्वास्थ्य संकटों से निपटने के लिए व्यापक पहल की। भारत ने वैक्सीनेशन और स्वास्थ्य आपातकालीन तैयारी में वैश्विक सहयोग को बढ़ावा देने का प्रयास किया।

  • वैक्सीनेशन और चिकित्सा उपकरणों की उपलब्धता: भारत ने G-20 देशों से सहयोग प्राप्त करने के लिए वैक्सीनेशन अभियानों और स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाने पर जोर दिया।

5. ग्लोबल डिजिटल ट्रांजिशन और टेक्नोलॉजी

भारत ने डिजिटल अर्थव्यवस्था और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी नई पहल की। भारत ने G-20 के मंच पर डिजिटल ट्रांजिशन के लिए रणनीतियाँ प्रस्तुत की और प्रौद्योगिकी के उपयोग से विकासशील देशों की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने की दिशा में कदम उठाए।

  • डिजिटल पेमेंट और इन्फ्रास्ट्रक्चर: भारत ने डिजिटल वित्तीय सेवाओं के विस्तार को बढ़ावा दिया और डिजिटल प्लेटफार्मों के माध्यम से वित्तीय समावेशन को सुनिश्चित किया।

6. भारत का वैश्विक कूटनीतिक प्रभाव

भारत की G-20 अध्यक्षता ने उसे एक वैश्विक कूटनीतिक नेता के रूप में प्रस्तुत किया। भारत ने अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में स्वतंत्र और रचनात्मक भूमिका निभाने का प्रयास किया, जिससे उसे वैश्विक मंचों पर बढ़ी हुई साख और सम्मान प्राप्त हुआ।

  • जियोपॉलिटिकल संतुलन: भारत ने G-20 के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों में अपने कूटनीतिक संबंधों को सशक्त किया और वैश्विक राजनीतिक परिस्थितियों में अपने प्रभाव को बढ़ाया।

7. भारत की नेतृत्व क्षमता को प्रदर्शित करना

भारत की G-20 अध्यक्षता ने उसे वैश्विक नेतृत्व के रूप में साबित किया। इससे केवल भारत की अर्थव्यवस्था और वैश्विक कूटनीति में प्रमुख स्थान मजबूत हुआ, बल्कि भारत ने यह भी प्रदर्शित किया कि वह वैश्विक मुद्दों पर प्रभावी रूप से विचार और निर्णय कर सकता है।

निष्कर्ष:

भारत की G-20 की अध्यक्षता केवल भारत के लिए एक अवसर था, बल्कि यह एक ऐसे मंच के रूप में कार्य किया जहां भारत ने वैश्विक मुद्दों पर अपने दृष्टिकोण और नेतृत्व का परिचय दिया। भारत ने अपनी अध्यक्षता के दौरान समावेशी विकास, जलवायु परिवर्तन, वैश्विक स्वास्थ्य, डिजिटल प्रौद्योगिकी, और वैश्विक आर्थिक स्थिरता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर महत्वपूर्ण कदम उठाए। इसके परिणामस्वरूप, भारत ने वैश्विक कूटनीति में अपनी ताकत को और बढ़ाया और पूरी दुनिया में अपनी नेतृत्व क्षमता को सिद्ध किया।

SECTION-B

 

Q-11 Critically examine the increasing powers and role of Prime Minister. How does it impact other institutions ?

ANSWER-

भारत में प्रधानमंत्री के बढ़ते शक्तियों और भूमिका का समालोचनात्मक विश्लेषण और अन्य संस्थाओं पर प्रभाव

भारत में प्रधानमंत्री की भूमिका और शक्तियों का वृद्धि एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है, जो भारतीय लोकतंत्र की स्थिरता और प्रभावशीलता को प्रभावित करता है। भारतीय संविधान के अनुसार, भारत एक संसदीय प्रणाली है, जिसमें राष्ट्रपति राज्य के प्रमुख होते हैं, जबकि प्रधानमंत्री सरकार के प्रमुख होते हैं। हालांकि, समय के साथ प्रधानमंत्री की शक्तियाँ बढ़ी हैं, और वे कई मामलों में केंद्रीय भूमिका निभाते हैं। इसके परिणामस्वरूप, यह केवल प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रभाव को बढ़ाता है, बल्कि अन्य संस्थाओं, जैसे संसद, न्यायपालिका और राज्य सरकारों, पर भी प्रभाव डालता है।

1. प्रधानमंत्री के बढ़ते शक्तियाँ और भूमिका

भारत में प्रधानमंत्री की शक्तियाँ संविधान में पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हैं, लेकिन संविधान निर्माताओं ने यह सुनिश्चित किया था कि सरकार की कार्यवाहियों में प्रधानमंत्री का केंद्रीय स्थान होगा। समय के साथ, विशेष रूप से भारतीय राजनीति में सशक्त नेतृत्व की बढ़ती आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, प्रधानमंत्री का रोल बढ़ा है।

मुख्य कारण:

  • राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति में प्रमुख भूमिका: प्रधानमंत्री देश की विदेश नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में मुख्य भूमिका निभाते हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा और कूटनीतिक निर्णयों में गहरी भागीदारी प्रधानमंत्री के प्रभाव को और बढ़ाती है।
  • संसदीय प्रणाली का केंद्रीकरण: भारतीय संसद में प्रधानमंत्री की शक्ति का प्रमुख कारण यह है कि वे राज्यसभा और लोकसभा दोनों से संसद के प्रमुख सदस्य के रूप में कार्य करते हैं। इसके परिणामस्वरूप, वे केंद्रीय सरकार के निर्णयों में निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
  • आधुनिक राजनीति में प्रभाव: चुनावी राजनीति में प्रमुख पार्टी के नेता के रूप में प्रधानमंत्री का व्यक्तित्व बढ़ा है। कई मामलों में, एक मजबूत और सशक्त प्रधानमंत्री की छवि केवल पार्टी की सफलता को सुनिश्चित करती है, बल्कि समग्र राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को भी प्रभावित करती है।

2. प्रधानमंत्री का सत्ता के केंद्रीकरण पर प्रभाव

प्रधानमंत्री के बढ़ते प्रभाव से सत्ता का केंद्रीकरण होता है, जो लोकतांत्रिक संस्थाओं पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।

संसद पर प्रभाव:

भारतीय संसद में, विशेष रूप से लोकसभा में, प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के सदस्य नीतियों को प्राथमिकता देने में सक्षम होते हैं। इसके परिणामस्वरूप, विपक्ष की भूमिका सीमित हो सकती है। प्रधानमंत्री द्वारा प्रस्तुत नीति पहलें और कार्यान्वयन योजनाएँ विपक्ष को चुनौती देने के बजाय प्रायः एक पक्षीय हो सकती हैं, जिससे लोकतंत्र की विविधता पर प्रभाव पड़ता है।

  • संसदीय विपक्ष की निष्क्रियता: अगर प्रधानमंत्री की शक्तियाँ अत्यधिक बढ़ जाती हैं, तो विपक्षी दलों की भूमिका और आवाज कमजोर हो सकती है। इससे लोकतंत्र के प्रमुख तत्व विविधता और विरोध की भूमिका पर खतरा उत्पन्न होता है।

राज्य सरकारों पर प्रभाव:

केंद्रीय सरकार के बढ़ते प्रभाव से राज्य सरकारों को भी चुनौती का सामना करना पड़ता है। विशेष रूप से केंद्रीय योजनाओं और नीतियों को लागू करने में राज्य सरकारों की स्वतंत्रता में कमी हो सकती है। राज्य सरकारों का शक्ति संतुलन केंद्र सरकार के पक्ष में झुका हुआ प्रतीत हो सकता है, और इससे संघीय व्यवस्था में असंतुलन पैदा हो सकता है।

  • संघीय संबंधों का तनाव: प्रधानमंत्री की केंद्रीय भूमिका राज्य सरकारों के साथ नीतिगत संघर्ष का कारण बन सकती है, खासकर जब केंद्र की नीतियाँ राज्यों की स्वायत्तता और अधिकारों के खिलाफ जाती हैं।

न्यायपालिका पर प्रभाव:

प्रधानमंत्री के कार्यालय का बढ़ता प्रभाव न्यायपालिका की स्वतंत्रता को भी प्रभावित कर सकता है। यदि प्रधानमंत्री की शक्ति और प्रभाव को अनुशासनहीन तरीके से बढ़ाया जाता है, तो न्यायपालिका को स्वतंत्र रूप से काम करने में दिक्कत हो सकती है, क्योंकि न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है।

  • सरकार के प्रभाव के तहत न्यायिक निर्णय: किसी सरकार के पक्ष में न्यायिक निर्णयों का बढ़ना लोकतंत्र में न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सवाल उठा सकता है। प्रधानमंत्री के बढ़ते प्रभाव के कारण न्यायपालिका स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर पाती, और यह संविधान की मूल भावना के खिलाफ हो सकता है।

3. प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत शक्तियों का जोखिम

जब प्रधानमंत्री अत्यधिक शक्तिशाली हो जाते हैं, तो उनके व्यक्तिगत निर्णय और व्यक्तिगत प्रभाव लोकतांत्रिक संस्थाओं के समक्ष एक चुनौती बन सकते हैं। इस स्थिति में, सरकार के फैसले व्यक्ति की इच्छाओं पर निर्भर हो सकते हैं, जो कि संस्थागत प्रक्रियाओं और लोकतांत्रिक मूल्यओं के विपरीत हो सकता है।

  • स्ट्रॉन्ग लीडरशिप का खतरा: जब प्रधानमंत्री अत्यधिक सशक्त हो जाते हैं, तो यह सत्ता के केंद्रीकरण को बढ़ाता है और इससे नेतृत्व में तानाशाही प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हो सकती हैं, जिनसे लोकतंत्र की स्थिरता पर खतरा हो सकता है।

4. प्रधानमंत्री का भूमिका और सरकारी जवाबदेही

प्रधानमंत्री के द्वारा शासन करने का तरीका किसी भी सरकार की जवाबदेही और पारदर्शिता को प्रभावित करता है। हालांकि प्रधानमंत्री की भूमिका देश के विकास और स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण होती है, लेकिन उनका बढ़ता नियंत्रण विपक्ष, मीडिया और अन्य संस्थाओं के लिए चुनौती बन सकता है, जिससे सरकार की जवाबदेही कम हो सकती है।

  • प्रशासनिक पारदर्शिता की कमी: जब सत्ता एक व्यक्ति के हाथों में केंद्रित हो जाती है, तो यह सरकार की पारदर्शिता और जवाबदेही को कमजोर कर सकता है, जिससे भ्रष्टाचार और प्रशासनिक असफलताओं के बढ़ने का खतरा होता है।

निष्कर्ष:

भारत में प्रधानमंत्री की बढ़ती शक्तियाँ और केंद्रीय भूमिका लोकतंत्र के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित कर रही हैं। यह विकासात्मक दृष्टिकोण से प्रभावी हो सकता है, लेकिन इसके साथ ही यह अन्य संस्थाओं, जैसे संसद, राज्य सरकारों, और न्यायपालिका के संतुलन को भी प्रभावित कर सकता है। इस स्थिति में, संविधान द्वारा निर्धारित संस्थागत संतुलन और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करना आवश्यक है, ताकि सत्ता का केंद्रीकरण लोकतंत्र की गरिमा को प्रभावित करे।

Q-12 How does the federal structure in India accommodates the diverse needs and aspiration of different states ? Are there any challenges, if yes, then how are they addressed ?

ANSWER-

भारत में संघीय संरचना: राज्य की विविध आवश्यकताओं और आकांक्षाओं की प्राप्ति

भारत का संविधान एक संघीय ढांचे को स्वीकार करता है, जो विभिन्न राज्यों और केंद्र के बीच शक्ति और अधिकारों का वितरण सुनिश्चित करता है। भारतीय संघीय संरचना का उद्देश्य राज्यों के बीच विविधताओं को ध्यान में रखते हुए एकजुट राष्ट्र के रूप में कार्य करना है। इस संरचना ने देश के विभिन्न भाषाई, सांस्कृतिक, धार्मिक और भौगोलिक विविधताओं को समाहित करने के लिए कई तंत्र और उपाय प्रदान किए हैं। हालांकि, इसमें कई प्रकार की चुनौतियाँ भी हैं, जिन्हें लगातार हल करने की आवश्यकता रहती है।

1. भारतीय संघीय संरचना का आधार

भारत की संघीय संरचना को संविधान में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जो राज्यों और केंद्र के बीच शक्तियों का वितरण करता है। संविधान में सातवीं अनुसूची के अंतर्गत केंद्र, राज्य और समवर्ती सूची (Concurrent List) में शक्तियाँ बाँटी जाती हैं, ताकि विभिन्न स्तरों पर कार्य करने की स्वतंत्रता हो।

  • केंद्र और राज्यों के अधिकार: केंद्र के पास कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में अधिकार होते हैं, जैसे रक्षा, विदेशी मामले, और संचार, जबकि राज्य सरकारों को आंतरिक मामलों जैसे कानून व्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि आदि में अधिकार प्राप्त होते हैं। समवर्ती सूची में दोनों स्तरों को अधिकार मिलते हैं, जैसे अपराध, कराधान आदि।
  • विशेष राज्य: भारतीय संघ में कुछ विशेष राज्य भी हैं जिन्हें विशेष अधिकार प्राप्त हैं, जैसे जम्मू और कश्मीर (जिनकी स्थिति अनुच्छेद 370 के तहत विशेष थी) और नगालैंड, आसाम, मणिपुर जैसे राज्यों को भी विशेष संवैधानिक प्रावधान प्राप्त हैं, जो उनकी सांस्कृतिक और भौगोलिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए दिए गए हैं।
  • संविधान के अनुच्छेद 371 और अन्य प्रावधान: भारतीय संविधान में कुछ राज्यों को विशेष अधिकार और स्वायत्तता दी गई है, ताकि उनके विशिष्ट सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संदर्भों को ध्यान में रखा जा सके।

2. विविध आवश्यकताओं और आकांक्षाओं का समावेश

भारत की संघीय संरचना इस प्रकार डिज़ाइन की गई है कि यह राज्य की विविध आवश्यकताओं और आकांक्षाओं का समावेश कर सके। भारतीय राज्यों की विविधताएँ मुख्यतः भाषा, संस्कृति, धर्म, जाति, और क्षेत्रीय मुद्दों से संबंधित हैं।

विविधताओं का समावेश:

  • भाषाई और सांस्कृतिक विविधताएँ: भारत में विभिन्न भाषाएँ और संस्कृतियाँ हैं, और संविधान ने इन विविधताओं को सम्मानित करने के लिए राजभाषा और केंद्र सरकार के भाषा नीति में अनुकूलन किया है। प्रत्येक राज्य में अपनी मातृभाषा का प्रचलन है और केंद्र सरकार को भी इस नीति के अनुसार अपनी कार्यप्रणाली को स्थापित करना होता है।
  • संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 के माध्यम से विभिन्न जातिगत और धार्मिक समुदायों के अधिकारों की रक्षा की जाती है, ताकि उनके सामाजिक और राजनीतिक अधिकार सुनिश्चित हों।
  • विकास के समान अवसर: संघीय संरचना में विभिन्न राज्य अपनी स्थिति और आवश्यकता के अनुसार विकास कार्यक्रमों को लागू कर सकते हैं। केंद्र सरकार राष्ट्रीय योजनाएँ बनाती है, लेकिन राज्यों को अपनी आवश्यकता के अनुसार इन योजनाओं को लागू करने का अधिकार होता है। इससे प्रत्येक राज्य को अपनी आकांक्षाओं और आवश्यकताओं के अनुसार निर्णय लेने की स्वतंत्रता मिलती है।

3. संघीय संरचना से जुड़ी चुनौतियाँ

भारत की संघीय संरचना में राज्य और केंद्र के बीच संतुलन बनाए रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। कभी-कभी यह अंतरराष्ट्रीय, राजनीतिक और आर्थिक कारकों के कारण उत्पन्न होती हैं।

मुख्य चुनौतियाँ:

  • केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति संघर्ष: केंद्र और राज्य सरकारों के बीच कई बार शक्ति संघर्ष होता है। केंद्रीय सरकार कभी-कभी राज्यों के अधिकारों में हस्तक्षेप करती है, जिससे राज्य सरकारों को अपनी स्वायत्तता की रक्षा के लिए संघर्ष करना पड़ता है।
    • उदाहरण: राज्य के अधिकारों का उल्लंघन - जब केंद्र सरकार राज्यों की सहमति के बिना कानून बनाती है या राज्य के मामलों में हस्तक्षेप करती है, तो यह राज्यों के स्वायत्तता का उल्लंघन हो सकता है, जैसे आर्टिकल 356 के तहत राष्ट्रपति शासन का लागू होना।
  • क्षेत्रीय असंतुलन और विकेंद्रीकरण: कुछ राज्यों को अन्य राज्यों की तुलना में अधिक संसाधन मिलते हैं, जिससे क्षेत्रीय असंतुलन बढ़ता है। उदाहरण के लिए, कुछ राज्य प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध होते हैं, जबकि अन्य को आर्थिक विकास में कमी होती है।
  • धार्मिक और जातीय असहमति: भारत में विविध धर्म और जातियाँ हैं, और कभी-कभी केंद्र सरकार के फैसले राज्यों में सांस्कृतिक और धार्मिक असहमति उत्पन्न कर सकते हैं।

समाधान और उपाय:

  • राजनीतिक संवाद और सहयोग: केंद्र और राज्य के बीच लगातार संवाद और सहयोग की आवश्यकता है, ताकि आपसी समझ और समर्थन बने। गांधीवाद और संविधानिक सम्मान के सिद्धांतों के आधार पर इसका समाधान किया जा सकता है।
  • विकेंद्रीकरण और शक्तियों का संतुलन: राज्य सरकारों को आर्थिक और राजनीतिक स्वायत्तता देने से राज्यों की आकांक्षाओं को समावेशित किया जा सकता है। इससे राज्यों में एक सशक्त और जिम्मेदार सरकार का निर्माण होगा।
  • संविधानिक उपाय: संविधान में विभिन्न संशोधनों और न्यायिक व्याख्याओं के माध्यम से राज्य सरकारों की विशेष जरूरतों का सम्मान किया जा सकता है। संसदीय समिति और न्यायिक जांच भी राज्यों के मुद्दों को हल करने में सहायक हो सकती हैं।

निष्कर्ष:

भारत की संघीय संरचना, विविधताओं को समाहित करने में प्रभावी रही है, लेकिन इसके साथ कई चुनौतियाँ भी हैं। केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए मजबूत संवाद, संवैधानिक और राजनीतिक उपायों की आवश्यकता है। संविधान ने राज्यों को महत्वपूर्ण अधिकार दिए हैं, लेकिन इन अधिकारों के पालन में संदेह और संघर्ष उत्पन्न हो सकते हैं, जिनके समाधान के लिए संवैधानिक और राजनीतिक तंत्र के समन्वय की आवश्यकता है।

Q-13 What alternative mechanism of dispute resolution have emerged in recent years? How far have they been effective?

ANSWER-

हाल के वर्षों में पारंपरिक न्यायिक प्रक्रिया के अलावा विभिन्न विकल्पीय विवाद समाधान (ADR) प्रणालियाँ उभरी हैं। ये प्रणालियाँ विवादों को पारंपरिक न्यायालयों से बाहर हल करने के उद्देश्य से विकसित की गई हैं। इन प्रणालियों का उद्देश्य विवादों का त्वरित, सस्ता और लचीलापन से समाधान प्रदान करना है। भारत में इन प्रणालियों की लोकप्रियता बढ़ी है, खासकर जब न्यायालयों पर केसों का बोझ बढ़ा है और न्यायिक प्रक्रिया में विलंब हो रहा है। नीचे कुछ प्रमुख विकल्पीय विवाद समाधान प्रणालियों की चर्चा की जा रही है और इनकी प्रभावशीलता पर विचार किया गया है:

1. मध्यस्थता (Mediation)

परिभाषा: मध्यस्थता एक प्रक्रिया है, जिसमें एक तटस्थ तीसरे पक्ष (मध्यस्थ) दोनों पक्षों के बीच संवाद को प्रोत्साहित करता है और एक सहमति पर पहुंचने में मदद करता है।

उभरना: मध्यस्थता का उपयोग अधिकतर नागरिक, पारिवारिक और व्यापारिक विवादों में किया जा रहा है। भारत में मध्यस्थता और सुलह परियोजना समिति (MCPC) द्वारा मध्यस्थता को बढ़ावा दिया गया है।

प्रभावशीलता:

  • सस्ता और त्वरित: यह पारंपरिक न्यायालयों से सस्ता और तेज़ है।
  • रिश्तों का संरक्षण: यह विवादों को सहमति से हल करके पक्षों के बीच रिश्तों को बनाए रखने में मदद करता है।
  • सीमाएँ: जब पक्षों के बीच शक्ति का असंतुलन होता है या एक पक्ष सहयोग करने को तैयार नहीं होता, तो मध्यस्थता प्रभावी नहीं हो पाती।

2. सुलह (Conciliation)

परिभाषा: सुलह में भी मध्यस्थता की तरह एक तटस्थ व्यक्ति दोनों पक्षों के बीच संवाद करता है, लेकिन सुलहकर्ता की भूमिका अधिक सक्रिय होती है और वह समाधान के प्रस्ताव भी दे सकता है।

उभरना: यह प्रणाली खासकर श्रम विवादों, पारिवारिक मामलों और उपभोक्ता शिकायतों में उपयोगी साबित हुई है। भारतीय परिषद मध्यस्थता (ICA) और श्रम मंत्रालय ने इसे बढ़ावा दिया है।

प्रभावशीलता:

  • सहायक: सुलहकर्ता के सक्रिय सुझावों से जल्दी समाधान मिलता है।
  • गैर-बाध्यकारी: यह प्रक्रिया सुलह की संस्तुति करती है, लेकिन समझौते की अनिवार्यता नहीं होती।
  • सीमाएँ: यदि एक पक्ष समाधान के लिए तैयार नहीं है, तो यह प्रक्रिया असफल हो सकती है।

3. लोक अदालत (Lok Adalat)

परिभाषा: लोक अदालत एक औपचारिक, न्यायिक निकाय है जो सुलह और मध्यस्थता द्वारा विवादों को हल करने की प्रक्रिया प्रदान करता है। यह न्यायिक सेवाओं के त्वरित और सस्ते समाधान के लिए काम करता है।

उभरना: यह प्रणाली 1987 में कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम के तहत औपचारिक रूप से शुरू की गई थी। इसका उद्देश्य लोगों को कम लागत पर न्याय प्रदान करना है, खासकर ग्रामीण इलाकों में।

प्रभावशीलता:

  • सुलभता: यह ग्रामीण क्षेत्रों में भी सुलभ है और गरीब वर्ग के लोगों के लिए न्याय प्रदान करता है।
  • सस्ता और तेज़: न्यायालयों की तुलना में यह प्रक्रिया सस्ती और तेजी से परिणाम देने वाली है।
  • सीमाएँ: जटिल कानूनी मामलों के लिए यह प्रणाली उपयुक्त नहीं हो सकती है।

4. आर्बिट्रेशन (Arbitration)

परिभाषा: आर्बिट्रेशन एक प्रक्रिया है जिसमें एक तटस्थ व्यक्ति (आर्बिट्रेटर) विवादों का हल करता है और एक बाध्यकारी निर्णय देता है। यह निर्णय न्यायालय के आदेश की तरह प्रभावी होता है।

उभरना: आर्बिट्रेशन का व्यापक उपयोग व्यापारिक और अंतर्राष्ट्रीय विवादों के समाधान में किया जाता है। भारतीय आर्बिट्रेशन और सुलह अधिनियम, 1996 के तहत इसे कानूनी रूप से बढ़ावा दिया गया है।

प्रभावशीलता:

  • सिद्धता: आर्बिट्रेशन का निर्णय कानूनी रूप से बाध्यकारी होता है, जिससे यह व्यापारिक मामलों में एक विश्वसनीय विकल्प बनता है।
  • त्वरित: यह प्रक्रिया पारंपरिक न्यायालयों से तेज़ है।
  • सीमाएँ: यह महंगी हो सकती है, विशेष रूप से जब विवाद जटिल होते हैं।

5. ऑनलाइन विवाद समाधान (ODR)

परिभाषा: ऑनलाइन विवाद समाधान एक डिजिटल प्लेटफॉर्म के माध्यम से विवादों को हल करने की प्रक्रिया है। इसमें पक्ष इंटरनेट के माध्यम से मध्यस्थता, आर्बिट्रेशन या सुलह कर सकते हैं।

उभरना: कोविड-19 महामारी के दौरान इस प्रणाली की लोकप्रियता बढ़ी, क्योंकि यह परंपरागत न्यायालयों की तुलना में अधिक सुलभ और सुरक्षित थी।

प्रभावशीलता:

  • वैश्विक पहुँच: यह प्रणाली अंतर्राष्ट्रीय विवादों के लिए उपयुक्त है क्योंकि इसमें भौगोलिक सीमाएँ नहीं होतीं।
  • सुविधा: यह प्रक्रिया अधिक सुविधाजनक होती है क्योंकि पक्षों को शारीरिक रूप से उपस्थित होने की आवश्यकता नहीं होती।
  • सीमाएँ: तकनीकी असमर्थता या इंटरनेट की कम पहुँच वाले क्षेत्रों में यह प्रणाली प्रभावी नहीं हो सकती।

6. नेगोशिएशन (Negotiation)

परिभाषा: यह एक स्वैच्छिक और अनौपचारिक प्रक्रिया है, जिसमें दोनों पक्ष खुद अपने विवाद का समाधान करने के लिए बातचीत करते हैं।

उभरना: यह प्रक्रिया विशेष रूप से व्यापारिक, पारिवारिक और श्रमिक विवादों में उपयोग की जाती है।

प्रभावशीलता:

  • लचीलापन: यह प्रक्रिया दोनों पक्षों की आवश्यकताओं के अनुरूप होती है।
  • सस्ता और त्वरित: यह पारंपरिक न्यायालयों से सस्ता और तेज़ है।
  • सीमाएँ: यदि पक्षों के बीच शक्ति का असंतुलन हो, तो यह प्रक्रिया असफल हो सकती है।

निष्कर्ष

विकल्पीय विवाद समाधान प्रणालियाँ हाल के वर्षों में एक प्रभावी और उपयोगी विकल्प के रूप में उभरी हैं। ये प्रणालियाँ पारंपरिक न्यायालयों की तुलना में अधिक त्वरित, सस्ती और लचीली हैं। हालांकि, इन प्रणालियों के कुछ सीमाएँ भी हैं, जैसे शक्ति का असंतुलन, भागीदारी की अनिच्छा, और कानूनी अनुशासन की कमी। फिर भी, भारत में इन प्रणालियों का प्रचलन बढ़ा है और ये न्यायिक प्रणाली को बोझ से मुक्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।

Q-14 Describe the law-making process in the Legislative Assembly of Uttar Pradesh.

ANSWER-

उत्तर प्रदेश विधान सभा राज्य का सर्वोच्च विधायिका संस्थान है, जो राज्य के कानून बनाने, नीति निर्धारण और सरकार के कार्यों पर निगरानी रखने का कार्य करती है। विधान सभा में विधायिका का कार्य मुख्य रूप से विधेयक (Bill) को पारित करना होता है, जो अंततः कानून का रूप लेता है। इस प्रक्रिया में कुछ महत्वपूर्ण कदम होते हैं जिन्हें समझना आवश्यक है:

1. विधेयक का प्रस्ताव (Introduction of Bill)

विधेयक विधायिका में पेश करने से पहले राज्य सरकार या विधायक इसे तैयार करते हैं। विधेयक को विधान सभा में दो तरह से प्रस्तुत किया जा सकता है:

  • सरकारी विधेयक: यह राज्य सरकार द्वारा प्रस्तुत किया जाता है और इसे किसी भी मंत्री द्वारा पेश किया जा सकता है।
  • निजी सदस्य विधेयक: यह किसी विधायक द्वारा पेश किया जाता है जो राज्य सरकार का हिस्सा नहीं होता।

विधेयक को विधान सभा में प्रस्तुत करने के बाद, इसके विषय पर चर्चा और विचार-विमर्श शुरू होता है।

2. विधेयक का पहले पठन (First Reading)

विधेयक का पहला पठन उस विधेयक को विधान सभा के सदस्य के सामने प्रस्तुत किया जाता है। इस पठन के दौरान विधेयक का केवल नाम और उद्देश्य पढ़ा जाता है। इस चरण में विधेयक पर कोई चर्चा नहीं होती है, बल्कि यह केवल विधेयक को प्रस्तुत करने का एक औपचारिक चरण होता है।

3. विधेयक पर विचार (Consideration of the Bill)

पहले पठन के बाद विधेयक को विधायी समिति में भेजा जाता है, जहाँ इस पर गहन विचार-विमर्श किया जाता है। विधेयक की समीक्षा करने के बाद समिति अपने सुझाव और बदलाव प्रस्तुत करती है। यदि कोई सदस्य या मंत्री विधेयक में कुछ बदलाव चाहता है, तो उसे प्रस्तावित किया जाता है और फिर उस पर बहस होती है।

विधेयक पर विचार करते समय इसके विभिन्न पहलुओं पर चर्चा होती है, जैसे इसके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव। यदि आवश्यक हो, तो इसमें संशोधन किए जाते हैं। इस प्रक्रिया को सेकंड रीडिंग कहा जाता है, जिसमें विधेयक पर विस्तृत चर्चा होती है।

4. विधेयक में संशोधन (Amendment of the Bill)

विधेयक पर विचार के दौरान, सदस्य इस पर विभिन्न संशोधन प्रस्तावित कर सकते हैं। यदि विधेयक में कोई बदलाव आवश्यक होता है, तो उसे वोटिंग द्वारा मंजूरी दी जाती है। इसके बाद, विधेयक को फिर से संबंधित समिति द्वारा मूल्यांकित किया जाता है और अंतिम रूप से संशोधित किया जाता है।

5. विधेयक का तीसरा पठन (Third Reading)

विधेयक के संशोधनों और सभी संबंधित चर्चाओं के बाद, विधेयक का तीसरा पठन होता है। इस चरण में, विधेयक को फिर से पूरे सदन में प्रस्तुत किया जाता है और इसके अंतिम रूप को अनुमोदित किया जाता है। तीसरे पठन में आमतौर पर केवल विधेयक के अंतर्निहित उद्देश्य और उसकी व्यावहारिकता पर चर्चा होती है।

6. वोटिंग और अनुमोदन (Voting and Approval)

विधेयक के तीसरे पठन के बाद, उसे वोटिंग के लिए रखा जाता है। सभी सदस्यों द्वारा वोटिंग के बाद, यदि बहुमत से विधेयक को मंजूरी मिल जाती है, तो विधेयक को पास कर दिया जाता है। यह प्रक्रिया विधायिका के दोनों सदनों (विधान सभा और विधान परिषद) में होती है। यदि विधान परिषद भी इसे पास कर देती है, तो विधेयक राज्यपाल के पास भेजा जाता है।

7. राज्यपाल की स्वीकृति (Assent of the Governor)

विधायिका द्वारा पास होने के बाद, विधेयक को राज्यपाल के पास भेजा जाता है। राज्यपाल इसे मंजूरी देते हैं, तो वह विधेयक कानून बन जाता है। यदि राज्यपाल किसी विधेयक को अपनी स्वीकृति नहीं देते हैं, तो वह इसे वापस भेज सकते हैं या राज्यसभा में भेज सकते हैं। राज्यपाल द्वारा स्वीकृति मिलने के बाद, विधेयक कानून का रूप लेता है और यह राज्य में लागू हो जाता है।

8. कानून का लागू होना (Implementation of the Law)

राज्यपाल द्वारा स्वीकृति मिलने के बाद, यह विधेयक कानून बन जाता है और इसे संबंधित विभाग द्वारा लागू किया जाता है। इसके बाद, इसके निष्पादन की प्रक्रिया शुरू होती है, और राज्य सरकार इस कानून को लागू करने के लिए नियम और दिशानिर्देश तय करती है।

निष्कर्ष

उत्तर प्रदेश विधान सभा में विधायी प्रक्रिया एक सुसंगत और विधायिका की शक्ति को प्रकट करने वाली प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया सुनिश्चित करती है कि राज्य के लिए महत्वपूर्ण कानून पारित किए जाएं, जो समाज के विभिन्न वर्गों के लिए फायदेमंद हों। यह प्रक्रिया पारदर्शिता, लोकतंत्र और शासन की जिम्मेदारी का प्रतीक है।

Q-15 Clarify the role of Civil Servants in strengthening the democratic process in India.

ANSWER-

भारत में सिविल सेवकों की भूमिका और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सशक्त बनाना

भारत में सिविल सेवक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के महत्वपूर्ण स्तंभों में से एक हैं। वे केवल सरकारी नीतियों को लागू करने में मदद करते हैं, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को भी मजबूती प्रदान करते हैं। उनके कार्यों के माध्यम से सरकार के फैसलों को आम जनता तक पहुंचाना और समाज में विकासशीलता और न्याय सुनिश्चित करना संभव हो पाता है। सिविल सेवकों की भूमिका को विस्तृत रूप से समझने के लिए निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है:

1. न्यायिक, निष्पक्ष और पारदर्शी प्रशासन (Judicious, Impartial, and Transparent Administration)

सिविल सेवक प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर कार्य करते हैं और उन्हें संविधान और कानूनों का पालन करने की शपथ ली होती है। वे चुनावों, सरकारी योजनाओं और अन्य सार्वजनिक कार्यों में निष्पक्षता बनाए रखते हैं। यह निष्पक्षता भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सशक्त बनाती है, क्योंकि सिविल सेवक किसी भी पार्टी या सरकार से ऊपर रहते हैं और उनका उद्देश्य केवल संविधान और कानून का पालन करना होता है।

उदाहरण: निर्वाचन आयोग के अधिकारी स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों को सुनिश्चित करने के लिए कार्य करते हैं, जिससे लोकतंत्र की विश्वसनीयता बनी रहती है।

2. नीति निर्माण और कार्यान्वयन (Policy Formulation and Implementation)

सिविल सेवक सरकारी नीतियों को बनाते हैं और उन्हें लागू करते हैं। वे केवल सरकार की योजनाओं को आकार देते हैं, बल्कि ये सुनिश्चित करते हैं कि इन योजनाओं का समुचित तरीके से कार्यान्वयन हो। नीति निर्माण में सिविल सेवकों की महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि वे जनहित में फैसले लेते हैं और सरकार की योजनाओं को सही दिशा में लागू करते हैं।

उदाहरण: प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना (PMGSY) जैसे कार्यक्रम सिविल सेवकों द्वारा कार्यान्वित किए जाते हैं, जिनसे ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क निर्माण और बुनियादी ढांचे में सुधार हुआ है।

3. समाज के विभिन्न वर्गों के हितों की रक्षा (Protection of Interests of Different Social Groups)

सिविल सेवक समाज के विभिन्न वर्गों के हितों का संरक्षण करने का कार्य करते हैं। वे सरकार की नीतियों के द्वारा समाज में समावेशिता और समानता सुनिश्चित करते हैं। वे गरीबों, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं के अधिकारों की रक्षा में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

उदाहरण: महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (MGNREGA) सिविल सेवकों के माध्यम से लागू की जाती है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी को कम करने और ग्रामीण मजदूरों के लिए काम उपलब्ध कराया जाता है।

4. जनता से संवाद और विश्वास निर्माण (Public Communication and Trust Building)

सिविल सेवक जनता के साथ संवाद स्थापित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे जनता के सवालों का जवाब देते हैं, समस्याओं का समाधान करते हैं और सरकार के फैसलों के बारे में जानकारी प्रदान करते हैं। इससे जनता और सरकार के बीच विश्वास का निर्माण होता है, जो लोकतंत्र को सशक्त करता है।

उदाहरण: RTI (Right to Information Act) के तहत सिविल सेवक नागरिकों को सार्वजनिक जानकारी उपलब्ध कराते हैं, जो लोकतंत्र में पारदर्शिता को बढ़ावा देता है।

5. लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की सुरक्षा (Protection of Democratic Processes)

सिविल सेवक चुनाव, जनमत संग्रह और अन्य लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के सही ढंग से संचालन के लिए जिम्मेदार होते हैं। वे सुनिश्चित करते हैं कि चुनाव स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से हों, और किसी भी प्रकार के धोखाधड़ी से बचा जाए।

उदाहरण: निर्वाचन आयोग चुनावों की प्रक्रिया को प्रभावी ढंग से संचालन करने के लिए सिविल सेवकों का प्रयोग करता है, ताकि लोकतंत्र की सच्चाई बनी रहे।

6. संविधान और कानून का पालन (Upholding the Constitution and Rule of Law)

सिविल सेवक भारतीय संविधान और कानूनों के पालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे यह सुनिश्चित करते हैं कि सरकार द्वारा लिए गए निर्णय संविधान के अनुरूप हों और किसी भी प्रकार का असंवैधानिक कार्य हो। इससे देश में कानून का शासन मजबूत होता है और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को संरक्षित किया जाता है।

उदाहरण: अधिकार क्षेत्र और संविधान का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए सिविल सेवक उच्च न्यायालयों और अन्य सरकारी एजेंसियों के साथ काम करते हैं।

7. सामाजिक और आर्थिक समावेशिता (Social and Economic Inclusivity)

सिविल सेवक यह सुनिश्चित करते हैं कि सरकार की योजनाएं समाज के सभी वर्गों तक पहुंचे, खासकर पिछड़े, गरीबी रेखा से नीचे और उपेक्षित वर्गों तक। इसके अलावा, वे सरकार की योजनाओं और नीतियों में सुधार के लिए सिफारिशें भी प्रस्तुत करते हैं, जिससे समाज में समावेशिता और समानता की भावना बढ़े।

उदाहरण: प्रधानमंत्री जन-धन योजना (PMJDY) के माध्यम से सिविल सेवक आर्थिक समावेशिता को बढ़ावा देते हैं, जिससे गरीब वर्ग के लोग बैंकिंग सेवाओं से जुड़ पाते हैं।

निष्कर्ष

भारत में सिविल सेवकों की भूमिका लोकतांत्रिक प्रक्रिया के संचालन में बेहद महत्वपूर्ण है। वे शासन की पारदर्शिता, निष्पक्षता, और समावेशिता सुनिश्चित करते हैं और भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाने में मदद करते हैं। सिविल सेवक केवल सरकारी योजनाओं को लागू करने में मदद करते हैं, बल्कि जनता से संवाद करते हुए लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करते हैं। उनके कार्यों से सरकार और जनता के बीच विश्वास का निर्माण होता है, जो एक सशक्त और स्वस्थ लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।

Q-16 Discuss the various aspects relating to the management of Health Services in the State of Uttar Pradesh.

ANSWER-

उत्तर प्रदेश (UP) भारत का सबसे बड़ा राज्य है, जिसमें 200 मिलियन से अधिक लोग रहते हैं। इस राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं का प्रबंधन एक बड़ी चुनौती है क्योंकि जनसंख्या का आकार, संसाधनों की कमी, और सामाजिक-आर्थिक असमानताएँ स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच और गुणवत्ता को प्रभावित करती हैं। हालांकि, राज्य सरकार ने कई योजनाएँ और नीतियाँ लागू की हैं, जो स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति में सुधार करने के प्रयासों का हिस्सा हैं। इस संदर्भ में, उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं के प्रबंधन के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की जा सकती है।

1. स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा (Health Service Structure)

उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं का प्रबंधन एक प्रमुख प्राथमिकता है, और इसका ढांचा तीन स्तरों पर आधारित है:

  • प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएँ (Primary Health Services): राज्य में 23 जिलों में जिला अस्पताल और 75% गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (PHC) और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (CHC) हैं। ये केंद्र बुनियादी स्वास्थ्य देखभाल, प्रसवपूर्व देखभाल, टीकाकरण, और सामान्य स्वास्थ्य समस्याओं का इलाज करते हैं।
  • द्वितीयक स्वास्थ्य सेवाएँ (Secondary Health Services): जिला अस्पतालों और उप-जिला अस्पतालों में चिकित्सा विशेषज्ञों द्वारा उपचार और अधिक जटिल समस्याओं का निदान किया जाता है। ये अस्पताल मरीजों को विशेषज्ञ उपचार प्रदान करते हैं और गंभीर मामलों के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से रेफरल का काम करते हैं।
  • तृतीयक स्वास्थ्य सेवाएँ (Tertiary Health Services): तृतीयक स्वास्थ्य सेवाएं चिकित्सा कॉलेजों और उच्च-स्तरीय अस्पतालों के माध्यम से प्रदान की जाती हैं, जैसे किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय (KGMU) और लखनऊ के लोहिया अस्पताल इन अस्पतालों में अत्याधुनिक चिकित्सा सुविधाएं और विशेषज्ञ सेवाएं उपलब्ध होती हैं।

2. स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच (Access to Health Facilities)

स्वास्थ्य सेवाओं तक लोगों की पहुंच राज्य के कई हिस्सों में चुनौतीपूर्ण है, विशेष रूप से दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में। सरकार ने स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच बढ़ाने के लिए कई कदम उठाए हैं, जैसे:

  • आयुष्मान भारत योजना (Ayushman Bharat Scheme): यह योजना गरीब और वंचित वर्ग के लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने के लिए लागू की गई है, ताकि वे उच्च गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठा सकें।
  • मिशन स्वास्थ्य सेवा (Mission Health Services): राज्य सरकार ने "स्वास्थ्य सेवा मिशन" शुरू किया है, जिसका उद्देश्य ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ाना है। इसके तहत गांवों में मोबाइल हेल्थ यूनिट्स और स्वास्थ्य शिविर लगाए जाते हैं।

3. स्वास्थ्य के लिए बजट और संसाधन (Budget and Resources for Health)

स्वास्थ्य सेवाओं के लिए राज्य सरकार का बजट अपेक्षाकृत कम है, जिससे स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता पर असर पड़ता है। हालांकि, राज्य सरकार ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में निवेश बढ़ाने के लिए कई योजनाएँ बनाई हैं, जैसे राज्य स्वास्थ्य मिशन (State Health Mission) और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (National Health Mission), जिसके तहत केंद्र सरकार और राज्य सरकार द्वारा संयुक्त रूप से वित्तीय मदद की जाती है।

4. स्वास्थ्य कर्मियों की कमी (Shortage of Health Personnel)

स्वास्थ्य सेवाओं का प्रबंधन एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि राज्य में डॉक्टरों, नर्सों, और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों की भारी कमी है। विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में चिकित्सकों की कमी से स्वास्थ्य सेवाएं प्रभावित हो रही हैं। राज्य सरकार ने इस समस्या को हल करने के लिए डॉक्टरों और नर्सों के लिए प्रोत्साहन योजनाएं शुरू की हैं और चिकित्सा शिक्षा के स्तर को बढ़ावा दिया है।

5. स्वास्थ्य कार्यक्रमों का कार्यान्वयन (Implementation of Health Programs)

उत्तर प्रदेश में विभिन्न सरकारी स्वास्थ्य कार्यक्रम चलाए जाते हैं, जिनमें पोषण अभियान (Nutrition Mission), मातृ-शिशु स्वास्थ्य कार्यक्रम (Maternal and Child Health Programs) और टीकाकरण कार्यक्रम (Vaccination Programs) शामिल हैं। इन कार्यक्रमों का उद्देश्य राज्य में बीमारियों के प्रसार को नियंत्रित करना और स्वास्थ्य जागरूकता फैलाना है।

  • स्वास्थ्य के लिए जागरूकता (Health Awareness): राज्य में स्वास्थ्य शिक्षा के माध्यम से लोगों को विभिन्न बीमारियों, स्वच्छता, और स्वस्थ जीवनशैली के बारे में जानकारी दी जाती है।

6. स्वास्थ्य संकट प्रबंधन (Health Crisis Management)

उत्तर प्रदेश में कई बार स्वास्थ्य संकट जैसे कोविड-19 महामारी, डेंगू और मलेरिया जैसी संक्रामक बीमारियों के प्रकोप की स्थिति उत्पन्न होती है। राज्य सरकार ने ऐसे संकटों से निपटने के लिए प्रभावी प्रबंधन योजनाएँ तैयार की हैं, जैसे:

  • कोविड-19 प्रबंधन: कोविड-19 महामारी के दौरान, राज्य सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं को प्राथमिकता दी, बड़े पैमाने पर जांच अभियान चलाया और टीकाकरण कार्यक्रम को तेजी से लागू किया। इसके अलावा, स्वास्थ्य ढांचे को बढ़ाया गया और अस्पतालों में विशेष कोविड-19 वार्ड्स बनाए गए।
  • संकट काल में स्वास्थ्य निगरानी (Health Surveillance): राज्य ने डेंगू, मलेरिया, और अन्य बिमारियों के प्रकोप को रोकने के लिए निगरानी तंत्र मजबूत किया है।

7. प्रौद्योगिकी का प्रयोग (Use of Technology)

राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं के प्रबंधन में सूचना प्रौद्योगिकी (ICT) का भी महत्वपूर्ण योगदान है। -स्वास्थ्य सेवाएं (e-Health Services), टेलीमेडिसिन (Telemedicine) और स्वास्थ्य ऐप्स (Health Apps) के माध्यम से दूरस्थ स्थानों पर लोगों को डॉक्टरों से ऑनलाइन परामर्श मिल रहा है।

निष्कर्ष

उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं का प्रबंधन एक जटिल और चुनौतीपूर्ण कार्य है, जिसमें संसाधनों की कमी, बड़ी जनसंख्या, और विविधताओं को ध्यान में रखते हुए समाधान ढूंढे जाते हैं। हालांकि राज्य सरकार ने कई योजनाएं और सुधार लागू किए हैं, फिर भी स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की आवश्यकता बनी हुई है। अगर स्वास्थ्य के क्षेत्र में और निवेश किया जाए, स्वास्थ्य कर्मियों की संख्या बढ़ाई जाए और अधिक समर्पण के साथ स्वास्थ्य कार्यक्रम लागू किए जाएं, तो उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति में और सुधार हो सकता है।

Q-17 What is Citizen's Charter ? What is its role in Welfare of Citizens ?

ANSWER-

नागरिका चार्टर (Citizen's Charter) क्या है?

नागरिका चार्टर एक दस्तावेज़ है जो सरकार द्वारा नागरिकों को प्रदान की जाने वाली सेवाओं, उनके अधिकारों, जिम्मेदारियों और अपेक्षाओं को स्पष्ट करता है। यह एक प्रकार का सार्वजनिक घोषणापत्र होता है, जिसमें किसी संगठन या सरकारी विभाग द्वारा नागरिकों को प्रदान की जाने वाली सेवाओं की गुणवत्ता, समय-सीमा और उपभोक्ता अधिकारों के बारे में जानकारी दी जाती है। नागरिका चार्टर का उद्देश्य नागरिकों को बेहतर सेवाएं प्रदान करना और शासन की पारदर्शिता को बढ़ाना है।

नागरिका चार्टर के प्रमुख तत्व:

  1. सेवाओं का विवरण: नागरिकों को कौन-कौन सी सेवाएं दी जाती हैं और वे सेवाएं कब और किस प्रकार प्राप्त की जा सकती हैं।
  2. सेवा मानक: सेवा की गुणवत्ता, समयसीमा, प्रक्रिया और अपेक्षित परिणाम की स्पष्टता।
  3. नागरिकों के अधिकार: नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन होने पर उनकी शिकायत करने और समाधान पाने की प्रक्रिया।
  4. समयसीमा: नागरिकों को निर्धारित समय सीमा के भीतर सेवाएं प्रदान करने की प्रतिबद्धता।
  5. समीक्षा और सुधार: सेवाओं की निरंतर समीक्षा और सुधार की प्रक्रिया।

नागरिका चार्टर का उद्देश्य:

नागरिका चार्टर का मुख्य उद्देश्य नागरिकों को अधिकारों के प्रति जागरूक करना और उन्हें पारदर्शी, उत्तरदायी और प्रभावी शासन की सुविधा देना है। यह नागरिकों को उनकी आवश्यकताओं के लिए सरकारी सेवाओं का बेहतर उपयोग करने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है।

नागरिका चार्टर का नागरिकों की भलाई में योगदान:

  1. सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार: नागरिका चार्टर के तहत सरकार यह सुनिश्चित करती है कि नागरिकों को उच्च गुणवत्ता वाली सेवाएं समय पर प्राप्त हों। उदाहरण के लिए, यदि नागरिकों को स्वास्थ्य, शिक्षा, या सरकारी योजनाओं का लाभ लेना है, तो नागरिका चार्टर यह सुनिश्चित करता है कि यह सेवाएं बिना किसी देरी या बाधा के प्रदान की जाएं।
  2. पारदर्शिता और उत्तरदायित्व: नागरिका चार्टर में यह स्पष्ट किया जाता है कि सरकारी अधिकारियों को नागरिकों के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। इसके माध्यम से यह सुनिश्चित किया जाता है कि सरकारी दफ्तरों में पारदर्शिता हो और नागरिकों को उनकी शिकायतों का समाधान शीघ्र मिले।

उदाहरण: भारतीय रेलवे का नागरिका चार्टर नागरिकों को ट्रेन की जानकारी, टिकट बुकिंग, और अन्य सुविधाओं के बारे में पारदर्शी जानकारी प्रदान करता है, जिससे यात्री आसानी से सेवाओं का उपयोग कर सकते हैं।

  1. नागरिकों के अधिकारों का संरक्षण: नागरिका चार्टर नागरिकों को यह बताता है कि वे किस प्रकार अपने अधिकारों की रक्षा कर सकते हैं और यदि उन्हें कोई समस्या होती है, तो वे किस प्रकार शिकायत कर सकते हैं। इस तरह से यह नागरिकों को सशक्त बनाता है।
  2. समय सीमा का निर्धारण: नागरिका चार्टर यह सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक सेवा को एक निर्धारित समय सीमा में पूरा किया जाए। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति पासपोर्ट आवेदन करता है, तो नागरिका चार्टर में पासपोर्ट जारी करने की निश्चित समय सीमा निर्धारित की जाती है, जिससे नागरिकों को अत्यधिक विलंब से बचने का अवसर मिलता है।
  3. प्रशासनिक सुधारों को बढ़ावा देना: नागरिका चार्टर के अंतर्गत, सरकार द्वारा एक निरंतर सुधार प्रक्रिया को लागू किया जाता है। यह सरकारी अधिकारियों को उनके कार्यों के प्रति उत्तरदायी बनाता है और नागरिकों के लिए अधिक सुविधाजनक सेवाएं प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त करता है।

भारतीय संदर्भ में नागरिका चार्टर की भूमिका:

भारत में नागरिका चार्टर का महत्व विशेष रूप से बढ़ा है क्योंकि यह सरकार की योजनाओं और सेवाओं को नागरिकों तक पहुँचाने और उन्हें बेहतर बनाने का एक प्रमुख उपाय है। भारतीय सरकार ने विभिन्न मंत्रालयों और विभागों के तहत नागरिकों के लिए चार्टर तैयार किए हैं।

उदाहरण:

  1. भारत सरकार के नागरिक चार्टर: भारत सरकार ने कई मंत्रालयों और विभागों के लिए नागरिका चार्टर तैयार किए हैं, जैसे कि भारतीय रेल, भारत पोस्ट, पासपोर्ट सेवा, आयकर विभाग, आदि। इन चार्टर्स के माध्यम से नागरिकों को ये सेवाएं सुविधाजनक तरीके से उपलब्ध कराई जाती हैं, और उनकी गुणवत्ता तथा समयसीमा को सुनिश्चित किया जाता है।
  2. राज्य सरकारों द्वारा नागरिका चार्टर: राज्य सरकारों ने भी अपने-अपने क्षेत्रों में नागरिका चार्टर तैयार किए हैं। उदाहरण के तौर पर, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा विभिन्न विभागों जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, और जल आपूर्ति के लिए नागरिका चार्टर बनाए गए हैं। इन चार्टर्स के माध्यम से सरकार ने यह सुनिश्चित किया है कि नागरिकों को बेहतर सेवा मिले और उनकी शिकायतों का समाधान त्वरित गति से हो।
  3. RTI (Right to Information): भारत में सूचना का अधिकार (RTI) नागरिकों को सरकारी कार्यों की पारदर्शिता की सुविधा प्रदान करता है। यह नागरिका चार्टर के उद्देश्यों के अनुरूप है, क्योंकि यह नागरिकों को उनके अधिकारों की जानकारी प्राप्त करने का अवसर देता है और सरकार के कार्यों की निगरानी करने में मदद करता है।

निष्कर्ष:

नागरिका चार्टर भारत में एक प्रभावी प्रशासनिक उपकरण है जो नागरिकों को सरकारी सेवाओं के बारे में जागरूक करता है और उन्हें उन सेवाओं का उपयोग करने में मदद करता है। यह नागरिकों के अधिकारों को संरक्षित करता है, सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार करता है, और सरकारी संस्थाओं को उत्तरदायित्वपूर्ण और पारदर्शी बनाने में मदद करता है। इस प्रकार, नागरिका चार्टर भारतीय समाज में प्रशासनिक सुधारों और नागरिक कल्याण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

Q-18 'India is ready for the World leadership'. Analyse this Comment.

ANSWER-

भारत का यह कथन "भारत विश्व नेतृत्व के लिए तैयार है" एक बहुत ही महत्वपूर्ण और संवेदनशील विषय है, जो देश की सामरिक, आर्थिक, और कूटनीतिक स्थिति को उजागर करता है। यह टिप्पणी केवल एक बयान नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक विश्लेषण और विचार-विमर्श की आवश्यकता को प्रस्तुत करता है, क्योंकि भारत के पास कई ऐसे संसाधन, क्षमताएँ और गुण हैं जो उसे वैश्विक मंच पर प्रमुख भूमिका निभाने के लिए सक्षम बनाते हैं।

भारत के नेतृत्व की दिशा में प्रमुख पहलू:

  1. आर्थिक शक्ति: भारत की अर्थव्यवस्था ने पिछले कुछ दशकों में महत्वपूर्ण वृद्धि की है। भारत आज दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और इसमें निरंतर वृद्धि का अनुमान है। विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) जैसे वैश्विक संस्थाएं भारत की विकास दर और स्थिरता को महत्वपूर्ण मानती हैं।
    • उदाहरण: भारत के बढ़ते जीडीपी और विदेशी निवेश (FDI) में वृद्धि, डिजिटल अर्थव्यवस्था का तेजी से विकास और विश्व व्यापार संगठन (WTO) में भारत का प्रभावी योगदान, यह दर्शाते हैं कि भारत की आर्थिक शक्ति वैश्विक स्तर पर प्रमुख बन रही है।
  2. वैश्विक कूटनीति और कूटनीतिक प्रभाव: भारत की विदेश नीति में व्यापक बदलाव आया है। भारत ने अपने पड़ोसियों और दुनिया के विभिन्न हिस्सों के साथ मजबूत संबंध स्थापित किए हैं। "आत्मनिर्भर भारत" और "प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक्ट ईस्ट नीति" जैसे पहल के द्वारा भारत ने एशिया और अन्य हिस्सों में अपनी उपस्थिति बढ़ाई है।
    • उदाहरण: भारत का BRICS, G20, और SCO (शंघाई सहयोग संगठन) जैसे वैश्विक मंचों में सक्रिय योगदान, साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के स्थायी सदस्य के रूप में भूमिका निभाने के लिए चल रहे प्रयास, यह संकेत देते हैं कि भारत वैश्विक राजनीति में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए तैयार है।
  3. सामरिक शक्ति और सुरक्षा: भारत की सैन्य ताकत ने भी इस दिशा में महत्वपूर्ण योगदान किया है। भारत एक परमाणु शक्ति है और इसका सेना, वायुसेना और नौसेना दुनिया के सबसे ताकतवर सेनाओं में से एक मानी जाती है। इसके अलावा, भारत का समर्पण अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा मामलों में योगदान देना, जैसे आतंकवाद विरोधी अभियान और UN Peacekeeping Missions में सक्रिय भागीदारी, इसे वैश्विक नेतृत्व के लिए उपयुक्त बनाता है।
    • उदाहरण: भारत ने हाल ही में रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के लिए कई कदम उठाए हैं जैसे 'आत्मनिर्भर भारत अभियान' और 'मेक इन इंडिया' पहल, जिससे यह स्पष्ट होता है कि भारत वैश्विक सामरिक स्थिति में भी अग्रणी बन सकता है।
  4. सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव: भारत की सांस्कृतिक विविधता और प्राचीन धरोहर उसे दुनिया के अन्य देशों के बीच एक प्रमुख सांस्कृतिक शक्ति बना देती है। भारतीय फिल्म उद्योग (बॉलीवुड), संगीत, योग, भारतीय भोजन, और अन्य सांस्कृतिक पहलू वैश्विक स्तर पर प्रभावी हुए हैं। इसके अलावा, भारतीय संस्कृति का वैश्विक स्तर पर फैलाव भारतीय समाज की एकता और उसकी सांस्कृतिक शक्ति का प्रतीक है।
    • उदाहरण: अंतरराष्ट्रीय स्तर पर योग दिवस, भारतीय फिल्मों की वैश्विक सफलता (जैसे, "बाहुबली" और "गली बॉय"), और भारतीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों का विश्वभर में आयोजन भारतीय संस्कृति को वैश्विक मंच पर प्रस्तुत कर रहा है।
  5. जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण में नेतृत्व: भारत ने जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय मुद्दों पर वैश्विक मंचों पर अपनी भूमिका को मज़बूत किया है। भारत ने पेरिस समझौते (Paris Agreement) के तहत अपनी प्रतिबद्धताएँ निभाने का वादा किया है और अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में भी तेजी से प्रगति की है। भारत ने 2030 तक 500 GW नवीकरणीय ऊर्जा का लक्ष्य निर्धारित किया है, जो उसे वैश्विक ऊर्जा नीति में प्रमुख भूमिका निभाने की क्षमता प्रदान करता है।
    • उदाहरण: भारत का "नमामि गंगे" कार्यक्रम, जलवायु परिवर्तन पर भारत का दृष्टिकोण, और अक्षय ऊर्जा स्रोतों में निवेश, यह दर्शाते हैं कि भारत पर्यावरणीय स्थिरता के क्षेत्र में एक नेतृत्वकारी भूमिका निभा सकता है।

भारत के नेतृत्व के सामने आने वाली चुनौतियाँ:

  1. आंतरिक असमानता और गरीबी: भारत के सामने अभी भी बड़ी आंतरिक चुनौतियाँ हैं जैसे गरीबी, बेरोजगारी, और सामाजिक असमानता। ये समस्याएँ यदि ठीक से नहीं सुलझाई जातीं, तो भारत की वैश्विक नेतृत्व की स्थिति प्रभावित हो सकती है।
  2. प्राकृतिक संसाधनों की कमी और पर्यावरणीय संकट: जबकि भारत ने पर्यावरणीय नेतृत्व का प्रयास किया है, लेकिन प्राकृतिक संसाधनों की कमी और प्रदूषण जैसे मुद्दे भारत के लिए एक बड़ी चुनौती हैं। इन समस्याओं को हल करने के लिए अधिक प्रभावी नीतियों की आवश्यकता है।
  3. आंतरिक राजनीतिक अस्थिरता: भारत में कई बार राजनीतिक अस्थिरता और कड़े निर्णयों को लेकर विरोध सामने आता है, जो उसके अंतरराष्ट्रीय नेतृत्व की क्षमता को प्रभावित कर सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, 2020 में कृषि कानूनों के खिलाफ हुए बड़े विरोध प्रदर्शनों ने राजनीतिक स्थिरता को चुनौती दी।

निष्कर्ष:

भारत निश्चित रूप से वैश्विक नेतृत्व की ओर बढ़ रहा है। इसके पास आर्थिक, सामरिक, सांस्कृतिक और कूटनीतिक रूप से वैश्विक स्तर पर प्रभाव डालने की क्षमता है। हालांकि, इसे अपनी आंतरिक समस्याओं को हल करने और वैश्विक मंच पर अपने नेतृत्व की स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए समग्र रणनीतियों की आवश्यकता होगी। भारत को अपनी नेतृत्व की भूमिका को दृढ़ता से निभाने के लिए एक सशक्त और समान विकसित समाज की ओर कदम बढ़ाने होंगे।

Q-19 How the Indian diaspora has emerged as an asset in the protection of national interest in America? Analyse it.

ANSWER-

भारतीय प्रवासी समुदाय, जो अमेरिका में महत्वपूर्ण संख्या में स्थित है, ने केवल भारत के लिए एक आर्थिक और सामाजिक संपत्ति के रूप में कार्य किया है, बल्कि वैश्विक राजनीति और कूटनीति में भी भारत के राष्ट्रीय हितों की रक्षा में अहम भूमिका निभाई है। भारतीय प्रवासियों ने अपनी सामाजिक और राजनीतिक भागीदारी के माध्यम से भारत के वैश्विक संबंधों को मजबूत किया है और अमेरिका में भारतीय संस्कृति और मूल्यों को बढ़ावा दिया है।

1. राजनीतिक प्रभाव और लॉबीइंग:

भारतीय प्रवासी समुदाय ने अमेरिकी राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। अमेरिकी राजनीति में उनके बढ़ते प्रभाव और सक्रिय भागीदारी ने भारत के राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। कई भारतीय-अमेरिकी नागरिकों ने अमेरिकी कांग्रेस और अन्य राजनीतिक संस्थाओं में अपनी स्थिति को मजबूत किया है, और यह लॉबी भारतीय हितों के पक्ष में काम करती है।

  • उदाहरण:
    • अमेरिका में भारतीय-अमेरिकी सांसदों की संख्या: 2020 के अमेरिकी चुनाव में भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिकों की संख्या में वृद्धि हुई है, जैसे कि कमला हैरिस (उप-राष्ट्रपति), प्रमिला जयपाल (कांग्रेस सदस्य) और राजीव अय्यर (सैन फ्रांसिस्को के मेयर) इन नेताओं के माध्यम से भारत-अमेरिका के संबंधों में सुधार हुआ है और भारतीय हितों को राजनीतिक स्तर पर समर्थन मिला है।
    • INDIA Caucus: अमेरिकी कांग्रेस में एक विशेष इंडिया कॉकस है, जो भारतीय समुदाय के नेताओं द्वारा गठित किया गया है और जो भारत-अमेरिका संबंधों को बेहतर बनाने और भारतीय मुद्दों को अमेरिकी राजनीतिक मंच पर लाने का कार्य करता है।

2. आर्थिक और व्यापारिक संबंधों में वृद्धि:

भारतीय प्रवासियों ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसके साथ ही, भारतीय अमेरिकी व्यवसायी और उद्यमी भारत के साथ व्यापारिक संबंधों को मजबूत करने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक आदान-प्रदान, निवेश और तकनीकी सहयोग बढ़ाने में प्रवासी समुदाय की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

  • उदाहरण:
    • गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, और अन्य प्रमुख कंपनियों में भारतीय नेतृत्व: सुंदर पिचाई (गूगल) और सत्य नडेला (माइक्रोसॉफ्ट) जैसे भारतीय-अमेरिकी नेताओं ने अमेरिका और भारत के बीच व्यापारिक और तकनीकी संबंधों को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
    • भारत-अमेरिका व्यापार: भारतीय प्रवासियों ने भारतीय वस्त्र उद्योग, फार्मास्यूटिकल्स, और आईटी क्षेत्र में अमेरिका में निवेश और व्यापारिक साझेदारी को बढ़ावा दिया है। भारत और अमेरिका के बीच दोतरफा व्यापार में कई गुणात्मक वृद्धि हुई है, जिसे भारतीय प्रवासियों की कड़ी मेहनत और नेतृत्व में देखा जा सकता है।

3. सामाजिक और सांस्कृतिक योगदान:

भारतीय प्रवासी समुदाय ने अमेरिकी समाज में भारतीय संस्कृति, परंपराओं और मूल्यों को बढ़ावा देने का कार्य किया है। भारतीय त्योहारों, संगीत, कला और साहित्य को अमेरिका में लोकप्रिय बनाया है। भारतीय धर्म और संस्कृति को समझने और सराहने में अमेरिकी नागरिकों की बढ़ती रुचि भारत के लिए फायदेमंद रही है।

  • उदाहरण:
    • योग और आयुर्वेद: भारत की प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों और जीवनशैली, जैसे योग और आयुर्वेद, को भारतीय प्रवासियों ने अमेरिका में प्रचलित किया है। यह भारतीय संस्कृति को दुनिया भर में बढ़ावा देने के साथ-साथ भारत की सॉफ़्ट पावर को भी सुदृढ़ करता है।
    • भारतीय फिल्म उद्योग (बॉलीवुड): भारतीय प्रवासी समुदाय ने अमेरिकी फिल्म उद्योग में बॉलीवुड की उपस्थिति को बढ़ाया है। उदाहरण के लिए, "बाहुबली" और "धूम" जैसी भारतीय फिल्में अमेरिकी बॉक्स ऑफिस पर सफल हुईं, जिससे भारत का सांस्कृतिक प्रभाव बढ़ा।

4. भारत-अमेरिका सुरक्षा सहयोग:

भारतीय प्रवासी समुदाय ने भारत और अमेरिका के बीच सुरक्षा और रणनीतिक सहयोग को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है। भारतीय समुदाय ने अमेरिकी राजनीति में अपनी उपस्थिति का उपयोग करते हुए भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा हितों का समर्थन किया है।

  • उदाहरण:
    • भारत-अमेरिका रक्षा समझौते: भारतीय प्रवासियों द्वारा अमेरिकी नीति निर्धारण स्तर पर प्रभाव डालने के कारण भारत और अमेरिका के बीच रक्षा सहयोग में वृद्धि हुई है। अमेरिका ने भारत को एक महत्वपूर्ण रणनीतिक साझीदार के रूप में माना है, और दोनों देशों के बीच संयुक्त सैन्य अभ्यासों और रक्षा क्षेत्र में सहयोग को बढ़ावा दिया गया है।
    • आतंकवाद के खिलाफ सहयोग: भारतीय प्रवासी समुदाय ने अमेरिका में आतंकवाद के खिलाफ जागरूकता बढ़ाई है और भारत के आतंकवाद विरोधी प्रयासों में अमेरिकी समर्थन को बढ़ावा दिया है।

5. भारतीय पहचान और सॉफ़्ट पावर:

भारतीय प्रवासियों ने अमेरिका में भारतीय पहचान को मजबूती से स्थापित किया है। उन्होंने भारतीय भाषाओं, साहित्य, कला और संस्कृति को दुनिया भर में फैलाने का कार्य किया है।

  • उदाहरण:
    • भारतीय प्रवासी संगठनों की भूमिका: भारतीय अमेरिकी संगठनों जैसे "इंडियन अमेरिकन काउंसिल", "आमेरिकन इंडिया फाउंडेशन" आदि ने अमेरिकी समाज में भारतीय समुदाय की भूमिका को महत्वपूर्ण बनाते हुए भारत के सांस्कृतिक, सामाजिक, और राजनीतिक हितों की रक्षा की है।

निष्कर्ष:

भारतीय प्रवासी समुदाय ने अमेरिका में भारतीय राष्ट्रीय हितों की रक्षा में एक मजबूत और प्रभावी भूमिका निभाई है। अमेरिकी राजनीति, व्यापार, संस्कृति, और सुरक्षा क्षेत्रों में भारत के योगदान को बढ़ाने में उनके प्रयासों का योगदान महत्वपूर्ण है। भारतीय प्रवासी आज अमेरिका में एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरे हैं, जो भारत और अमेरिका के बीच साझेदारी को मजबूती प्रदान कर रहे हैं और भारतीय राष्ट्रीय हितों की रक्षा में अहम भूमिका निभा रहे हैं।

Q-20 Indo-Pak relations are illusion at present'. Discuss the inherent problems that bitters India-Pak relations repeatedly

ANSWER-

भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्तों का इतिहास जटिल और तनावपूर्ण रहा है। 1947 में दोनों देशों के विभाजन के समय से ही द्विपक्षीय संबंधों में कई उतार-चढ़ाव आए हैं। भारत और पाकिस्तान दोनों ही विभिन्न कारणों से एक दूसरे के खिलाफ रहे हैं, और इसका प्रभाव द्विपक्षीय संबंधों पर पड़ा है।

भारत-पाकिस्तान संबंधों में अंतर्निहित समस्याएँ

भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में कई ऐसी समस्याएँ हैं, जो बार-बार द्विपक्षीय संबंधों को तनावपूर्ण बनाती हैं। इन समस्याओं का प्रभाव केवल द्विपक्षीय व्यापार और कूटनीति पर पड़ा है, बल्कि यह दोनों देशों के सामाजिक और राजनीतिक ढांचे में भी गहरे प्रभाव डालते हैं।

1. कश्मीर विवाद:

कश्मीर मुद्दा भारत और पाकिस्तान के बीच सबसे बड़ा और सबसे जटिल विवाद रहा है। 1947 में विभाजन के समय से कश्मीर राज्य पर नियंत्रण को लेकर दोनों देशों के बीच संघर्ष चल रहा है। यह विवाद तीन युद्धों और कई संघर्षों का कारण बन चुका है, और आज भी यह भारत-पाकिस्तान रिश्तों की प्रमुख बाधा है।

  • कश्मीर का विशेष दर्जा और अनुच्छेद 370: भारत ने जम्मू और कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा दिया था, जो 2019 में भारत सरकार द्वारा रद्द कर दिया गया। पाकिस्तान इस फैसले को असंवैधानिक मानता है, और इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठाने की कोशिश करता है।
  • सीमा संघर्ष: कश्मीर के विवादित क्षेत्र में नियंत्रण रेखा (LoC) के पास लगातार सीमा संघर्ष होते रहते हैं, जिनमें दोनों देशों के सैनिकों की जानें जाती हैं।

2. आतंकवाद:

भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में आतंकवाद एक अन्य महत्वपूर्ण समस्या है। भारत पाकिस्तान पर आरोप लगाता है कि वह पाकिस्तान से संचालित आतंकवादी समूहों का समर्थन करता है, जो भारतीय सीमा के भीतर आतंकी हमले करते हैं।

  • उदाहरण: 2001 में भारतीय संसद पर हमला और 2008 में मुंबई हमले जैसे आतंकी हमलों में पाकिस्तान आधारित आतंकवादी समूहों के शामिल होने के सबूत मिले हैं। भारत ने हमेशा पाकिस्तान से इस बारे में ठोस कार्रवाई की मांग की है, लेकिन पाकिस्तान इस पर उचित कदम नहीं उठा सका।
  • पाकिस्तान का पक्ष: पाकिस्तान का कहना है कि भारत की तरफ से आतंकवादियों का समर्थन किया जाता है, खासकर कश्मीर में, और कश्मीर में स्वतंत्रता की मांग करने वाले उग्रवादियों का समर्थन करता है। यह आरोप तनाव को और बढ़ाता है।

3. जल संसाधन विवाद:

भारत और पाकिस्तान के बीच जल संसाधनों का वितरण भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। दोनों देशों के बीच सिंधु नदी प्रणाली को लेकर विवाद है, जो पाकिस्तान और भारत के लिए पानी का प्रमुख स्रोत है। 1960 में सिंधु जल संधि के बाद भी इस क्षेत्र में विवाद जारी रहा है।

  • पानी का वितरण: पाकिस्तान का आरोप है कि भारत सिंधु जल संधि का उल्लंघन कर रहा है, खासकर जब भारत ने नदी के पानी पर बांध और परियोजनाएँ बनाई हैं। यह विवाद दोनों देशों के रिश्तों में एक और तनावपूर्ण मुद्दा है।

4. सीमा विवाद और सैन्य झड़पें:

भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा विवाद और सैन्य झड़पें भी रिश्तों को प्रभावित करती हैं। विशेष रूप से पाकिस्तान द्वारा कश्मीर के नियंत्रण वाले क्षेत्रों में घुसपैठ और संघर्षों को बढ़ावा देने के कारण सीमा पर तनाव बना रहता है।

  • कारगिल युद्ध (1999): यह युद्ध पाकिस्तान द्वारा कश्मीर के कारगिल क्षेत्र में घुसपैठ करने के कारण हुआ था, और इसने दोनों देशों के बीच रिश्तों को और तनावपूर्ण बना दिया।

5. राजनीति और जनसंवेदनाएँ:

भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में राजनीतिक नेताओं और जनसंवेदनाओं का भी एक महत्वपूर्ण प्रभाव है। राजनीतिक नेतृत्व द्वारा एक दूसरे के खिलाफ भड़काऊ बयानबाजी और आरोप-प्रत्यारोप इस तनाव को और बढ़ाते हैं।

  • भारत में पाकिस्तान विरोधी माहौल: पाकिस्तान के साथ कूटनीतिक संबंधों में निरंतर विफलताओं और आतंकवाद के आरोपों के कारण भारत में पाकिस्तान के प्रति नकारात्मक भावनाएँ पनपी हैं।
  • पाकिस्तान में भारत विरोधी विचारधारा: पाकिस्तान में भी भारत के खिलाफ एक मजबूत विरोधी विचारधारा और पाकिस्तान के मीडिया में भारत को लेकर नकारात्मक प्रचार होता है।

6. अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव और वैश्विक दबाव:

भारत और पाकिस्तान के रिश्तों पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। दोनों देशों के वैश्विक गठबंधन और रिश्ते उनके द्विपक्षीय संबंधों को प्रभावित करते हैं।

  • अमेरिका और चीन का प्रभाव: अमेरिका और चीन दोनों ही भारत और पाकिस्तान के रिश्तों पर प्रभाव डालते हैं। चीन पाकिस्तान का करीबी सहयोगी है और उसने पाकिस्तान के लिए कई सैन्य और आर्थिक सहायता प्रदान की है, जबकि भारत के साथ अमेरिकी संबंध भी मजबूत हो रहे हैं। इन अंतर्राष्ट्रीय कारकों का प्रभाव दोनों देशों के आपसी रिश्तों पर पड़ता है।

निष्कर्ष:

भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में अंतर्निहित समस्याओं का कोई एक सरल समाधान नहीं है। कश्मीर विवाद, आतंकवाद, सीमा संघर्ष, जल संसाधन, राजनीतिक विचारधारा और अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव सभी मिलकर इन देशों के रिश्तों को जटिल बनाते हैं। हालांकि दोनों देशों के बीच शांति और सहयोग के लिए कई अवसर हैं, लेकिन इन समस्याओं को सुलझाने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति, कूटनीतिक प्रयास और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता है। दोनों देशों को अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों के साथ-साथ शांति की ओर भी कदम बढ़ाने की आवश्यकता है।


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