UPPCS MAINS GENERAL STUDIES (PAPER - I) solution 2023

 

UPPCS GENERAL STUDIES (PAPER - I) solution 2023

Section-A

Q-1. Give an account of the Vedic literature.वैदिक सादित्य का परिचय िीदिए ।

ASWER-

वेदिक साहित्य भारतीय प्राचीन धर्म और दर्शन का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो विशेष रूप से वेदों में संकलित है। वेद शब्द का अर्थ "ज्ञान" होता है, और यह साहित्य प्राचीन ऋषियों द्वारा देवताओं की आराधना, यज्ञ विधि, जीवन के आदर्श, और ब्रह्मा की परम सत्ता को समझने के लिए रचा गया था। वेद चार प्रमुख भागों में विभाजित हैं:

1.      ऋग्वेद: यह वेदों का सबसे पुराना और प्रमुख वेद है। इसमें देवताओं की स्तुतियाँ, यज्ञों के मंत्र, और विश्व की उत्पत्ति के बारे में विचार व्यक्त किए गए हैं। इसमें कुल 10 मंडल होते हैं और इसमें प्राचीन भारतीय संस्कृति, धर्म और समाज की झलक मिलती है।

2.      यजुर्वेद: यह वेद यज्ञ और धार्मिक अनुष्ठानों के लिए आवश्यक मंत्रों और सूत्रों का संग्रह है। इसमें विशेष रूप से यज्ञों की विधि और प्रक्रिया पर जोर दिया गया है। यजुर्वेद में ऋग्वेद के मंत्रों का व्याख्यान और विस्तृत विवरण मिलता है।

3.      सामवेद: इस वेद में गान और संगीत का महत्व है। इसमें प्राचीन सामगान और यज्ञों में गाए जाने वाले मंत्रों का संग्रह है। सामवेद का मुख्य उद्देश्य मंत्रों का संगीतात्मक रूप से गायन करना था, जिससे वे अधिक प्रभावी हो सकें।

4.      अथर्ववेद: यह वेद जीवन के भौतिक पक्ष से संबंधित है। इसमें चिकित्सा, तंत्र-मंत्र, जीवन की समस्याओं का समाधान, और घर-परिवार के जीवन के विषय में ज्ञान दिया गया है। यह वेद मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य से संबंधित आचार-व्यवहार की बातें करता है।

इसके अलावा, वेदों से जुड़ी अन्य महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं:

·         उपनिषद: ये वेदों के गूढ़ और तात्त्विक ज्ञान को समझाने वाली रचनाएँ हैं। उपनिषद में ब्रह्मा और आत्मा के संबंध, संसार की उत्पत्ति, और मोक्ष की प्राप्ति के बारे में गहन विचार किए गए हैं।

·         ब्राह्मण: ये वेदों के अनुष्ठानों और धार्मिक कार्यों की व्याख्या करते हैं। ब्राह्मणों में यज्ञों की विधियाँ, उनके महत्व, और तात्त्विक अर्थ का विवेचन किया गया है।

·         आरण्यक: यह वेदों के कुछ और गहरे और साधना से संबंधित हिस्सों को समेटे हुए हैं, जो जंगलों में रहने वाले साधुओं और तपस्वियों के लिए उपयुक्त थे।

वेदिक साहित्य ने केवल धार्मिक दृष्टिकोण से, बल्कि भारतीय दर्शन, समाज, विज्ञान और कला के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इस साहित्य ने भारतीय जीवन के आदर्शों और सिद्धांतों को स्थापित किया, जिनका पालन आज भी किया जाता है।

Q-2 Write a note on the contribution of Sir Syed Ahmad Khan a modern education.

ANSWER-

सर सैयद अहमद खान का आधुनिक शिक्षा में योगदान

सर सैयद अहमद खान (1817-1898) भारतीय समाज के महान शिक्षाविद और सुधारक थे, जिन्होंने भारतीय मुसलमानों के लिए शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव की नींव रखी। उनका योगदान भारतीय समाज और विशेष रूप से मुसलमानों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था, क्योंकि उस समय भारतीय समाज विशेषकर मुसलमानों के बीच शिक्षा का स्तर बहुत निम्न था।

आधुनिक शिक्षा के लिए प्रयास:

1.      मद्रसा को आधुनिक शिक्षा से जोड़ना: सर सैयद अहमद खान ने पारंपरिक धार्मिक शिक्षा को आधुनिक वैज्ञानिक और पश्चिमी शिक्षा से जोड़ने का प्रयास किया। उन्होंने महसूस किया कि यदि भारतीय मुसलमानों को पश्चिमी विज्ञान, गणित, और तकनीकी ज्ञान में प्रशिक्षित किया जाता है, तो वे समाज में प्रगति कर सकते हैं।

2.      अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना: 1875 में सर सैयद अहमद खान ने "मुहम्मदन एंग्लो-ऑरिएंटल कॉलेज" की स्थापना की, जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) के रूप में विकसित हुआ। यह विश्वविद्यालय भारतीय मुसलमानों के लिए आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण केंद्र बना। यहाँ उन्होंने अंग्रेजी, विज्ञान, गणित, और आधुनिक विषयों की शिक्षा प्रदान की, जिससे मुस्लिम छात्रों को समाज में प्रतिस्पर्धा करने के अवसर प्राप्त हुए।

3.      पश्चिमी विज्ञान और संस्कृति का प्रचार: सर सैयद अहमद खान ने भारतीय समाज में पश्चिमी शिक्षा और विज्ञान का महत्व समझाया। उन्होंने इंग्लैंड का दौरा किया और वहाँ के शिक्षा और विज्ञान के प्रणालियों का अध्ययन किया। इसके बाद, उन्होंने भारतीय मुसलमानों के लिए इन नए विचारों को अपनाने का मार्ग प्रशस्त किया।

4.      "तौहिदुल्लाह" और "असारुल सनात" पत्रिकाएँ: उन्होंने शिक्षा और समाज सुधार के उद्देश्य से कई पत्रिकाओं का संपादन किया। "तौहिदुल्लाह" और "असारुल सनात" जैसी पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने आधुनिक शिक्षा, समाज सुधार, और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया।

5.      मुस्लिम समाज में जागरूकता फैलाना: सर सैयद ने भारतीय मुसलमानों को सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से जागरूक किया। उनका मानना था कि मुसलमानों को अंग्रेजों के साथ सहयोग करना चाहिए और उनकी शिक्षा प्रणाली को अपनाना चाहिए, ताकि वे ब्रिटिश शासन में अपनी स्थिति मजबूत कर सकें।

निष्कर्ष: सर सैयद अहमद खान का योगदान भारतीय समाज में शिक्षा के क्षेत्र में अत्यधिक महत्वपूर्ण था। उन्होंने केवल भारतीय मुसलमानों को शिक्षा की दिशा दिखाई, बल्कि भारतीय समाज के अन्य हिस्सों के लिए भी एक मॉडल प्रस्तुत किया। उनकी सोच और कार्यों ने भारतीय समाज में एक नए युग की शुरुआत की, जिसमें शिक्षा और जागरूकता के माध्यम से सामाजिक और आर्थिक प्रगति की राह खोली गई।

Q-3 Discuss the role of Sardar Patel in the unification of India after independence

ANSWER-

स्वतंत्रता के बाद भारत के एकीकरण में सरदार पटेल की भूमिका

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महान नेता और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय एकता के महान संरक्षक, सरदार वल्लभभाई पटेल का योगदान अविस्मरणीय है। उन्हें "भारत के लौह पुरुष" के नाम से भी जाना जाता है, और उनके नेतृत्व में ही भारत का एकीकरण संभव हो पाया। भारत की स्वतंत्रता के बाद, देश में विभिन्न रियासतें, रजवाड़े और ब्रिटिश शासन से पहले के छोटे-छोटे क्षेत्र थे, जो स्वतंत्र भारत के संघ में शामिल नहीं थे। सरदार पटेल ने इन रियासतों को भारत के एकीकरण में शामिल किया और एक सशक्त, अखंड राष्ट्र की नींव रखी।

भारत के एकीकरण में सरदार पटेल की भूमिका:

  1. रियासतों के एकीकरण का नेतृत्व: भारत की स्वतंत्रता के बाद, लगभग 565 स्वतंत्र रियासतें (राज्य) और रजवाड़े थे, जो या तो ब्रिटिश शासन के अधीन थे या स्वतंत्र रहने का इच्छुक थे। इन रियासतों के बीच एकता लाना और उन्हें भारतीय संघ में शामिल करना एक बड़ी चुनौती थी। सरदार पटेल ने इसके लिए एक सशक्त योजना बनाई और इन रियासतों को भारतीय संघ में समाहित करने के लिए सक्रिय रूप से कार्य किया।
  2. सत्ता का सही उपयोग: पटेल ने इन रियासतों को शांतिपूर्वक भारतीय संघ में शामिल करने के लिए भारतीय सरकार का दबाव और कुशल कूटनीति का इस्तेमाल किया। उन्होंने रियासतों के शासकों से बातचीत की और उन्हें समझाया कि भारतीय संघ में शामिल होना उनके राज्य की प्रगति और सुरक्षा के लिए बेहतर होगा। इसके अलावा, सरदार पटेल ने रियासतों के शासकों को यह भरोसा दिलाया कि वे अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक स्वतंत्रता बनाए रख सकते हैं, लेकिन एकीकृत भारत का हिस्सा बनना अनिवार्य था।
  3. लौह नायक की भूमिका: पटेल ने भारतीय एकता की खातिर कड़ा और दृढ़ रुख अपनाया। उन्होंने समझाया कि भारत को मजबूत बनाने के लिए उन रियासतों का भारतीय संघ में समावेश आवश्यक था। जब जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर जैसी रियासतें भारतीय संघ में शामिल होने में आनाकानी कर रही थीं, तब पटेल ने निर्णायक कदम उठाए और इन रियासतों को भारतीय संघ में शामिल कर लिया। विशेष रूप से हैदराबाद के विलय के दौरान भारतीय सेना की मदद ली गई, जो एक अहम कदम था।
  4. आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र के एकीकरण में भूमिका: सरदार पटेल ने भारतीय राज्यों के पुनर्गठन के समय भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका प्रयास था कि भारतीय राज्य ऐसे आकार में हों कि वे प्रशासनिक दृष्टिकोण से एकीकृत और सक्षम बन सकें।
  5. संविधान के अनुरूप एकीकरण: सरदार पटेल ने संविधान सभा के सामने यह मुद्दा रखा कि भारतीय संघ में रियासतों का समावेश संविधान के अनुशासन में होना चाहिए। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि रियासतों को भारतीय संविधान के तहत सभी नागरिक अधिकार प्राप्त हों, ताकि उनके नागरिकों को समान अवसर मिले और देश में समानता का माहौल बने।

निष्कर्ष: सरदार पटेल का योगदान भारत के एकीकरण में अत्यंत महत्वपूर्ण था। उनके दृढ़ नेतृत्व, कूटनीति, और साहसिक निर्णयों ने भारत को एकजुट किया और देश की अखंडता सुनिश्चित की। उनका कार्य भारतीय राजनीति, समाज और संस्कृति में अमिट छाप छोड़ गया, और उन्हें भारतीय इतिहास में एक महान राष्ट्रनिर्माता के रूप में हमेशा याद किया जाएगा।

Q-4 What kind of hindrances do regionalism create in the development of India?

ANSWR-

भारत में क्षेत्रवाद द्वारा उत्पन्न अवरोधों का विश्लेषण

क्षेत्रवाद (Regionalism) एक ऐसी प्रवृत्ति है जिसमें किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र या राज्य के लोग अपनी सांस्कृतिक, भाषाई, या आर्थिक पहचान को लेकर अलगाव की भावना महसूस करते हैं। यह भावना कभी-कभी पूरे राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए चुनौती बन जाती है। भारतीय समाज में क्षेत्रवाद के कारण कई प्रकार के अवरोध उत्पन्न होते हैं, जो देश के समग्र विकास में रुकावट डालते हैं।

क्षेत्रवाद से उत्पन्न प्रमुख अवरोध:

1.      राष्ट्रीय एकता और अखंडता पर खतरा: क्षेत्रवाद राष्ट्रीय एकता को कमजोर करता है। जब लोग अपने क्षेत्र या राज्य को प्राथमिकता देने लगते हैं, तो वे राष्ट्रीय स्तर पर सामूहिक प्रयासों में योगदान करने के बजाय अपनी स्वार्थी इच्छाओं को पूरा करने में जुट जाते हैं। इससे देश की एकता और अखंडता खतरे में पड़ सकती है, जैसे कि पूर्वी या दक्षिणी राज्यों में अलगाव की प्रवृत्तियाँ कभी-कभी देखने को मिलती हैं।

2.      आर्थिक असंतुलन: क्षेत्रवाद के कारण कुछ क्षेत्रों में अधिक ध्यान और संसाधन दिए जाते हैं, जबकि अन्य क्षेत्रों को उपेक्षित कर दिया जाता है। यह आर्थिक असंतुलन उत्पन्न करता है और देश के समग्र विकास में रुकावट डालता है। उदाहरण स्वरूप, कुछ राज्य केंद्र सरकार से ज्यादा संसाधन और विशेष पैकेज प्राप्त करने की कोशिश करते हैं, जिससे अन्य क्षेत्रों के विकास में कमी आती है।

3.      राजनीतिक अस्थिरता: क्षेत्रवाद राजनीतिक अस्थिरता का कारण बन सकता है। जब क्षेत्रीय दल अपनी अलग पहचान और मुद्दों को प्रमुख बनाने के लिए संघर्ष करते हैं, तो यह राष्ट्रीय राजनीति में विघटन उत्पन्न करता है। इससे केंद्र सरकार की नीतियों को लागू करने में मुश्किलें आती हैं और यह राजनीतिक गठबंधन को कमजोर करता है।

4.      सामाजिक और सांस्कृतिक विभाजन: क्षेत्रवाद के कारण समाज में विविधता के बावजूद भेदभाव और संघर्ष बढ़ सकते हैं। विभिन्न क्षेत्रों के लोग अपनी भाषा, संस्कृति और पहचान को लेकर अधिक संवेदनशील हो जाते हैं, जिससे समाज में तनाव और सामूहिक असहमति उत्पन्न हो सकती है। यह सामाजिक सौहार्द को प्रभावित करता है और विभिन्न समुदायों के बीच विभाजन को बढ़ाता है।

5.      संविधानिक और प्रशासनिक समस्याएँ: क्षेत्रवाद के कारण कई बार संवैधानिक और प्रशासनिक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। जब राज्य और केंद्र के बीच अधिकारों का संघर्ष बढ़ता है, तो यह शासन और प्रशासन की कार्यक्षमता को प्रभावित करता है। राज्य सरकारों और केंद्र सरकार के बीच तनावपूर्ण संबंध भी उत्पन्न हो सकते हैं, जिससे विकास कार्यों में विलंब हो सकता है।

6.      राष्ट्रीय विकास की गति में मंदी: क्षेत्रवाद के कारण देश में विकास की गति धीमी हो सकती है। क्षेत्रीय दलों की अपने-अपने राज्यों के लिए अधिक संसाधन प्राप्त करने की कोशिशों से राष्ट्रीय प्राथमिकताओं पर ध्यान नहीं दिया जाता। इसके कारण कई महत्वपूर्ण विकास परियोजनाओं में बाधाएँ उत्पन्न होती हैं, जो पूरे देश के विकास में रुकावट डाल सकती हैं।

निष्कर्ष: क्षेत्रवाद भारत में विकास की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाली एक गंभीर चुनौती है। यह केवल राष्ट्रीय एकता और अखंडता को खतरे में डालता है, बल्कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक असंतुलन भी उत्पन्न करता है। इसे नियंत्रित करने के लिए राष्ट्रीय एकता की भावना को प्रोत्साहित करना और सभी क्षेत्रों के समग्र विकास के लिए समान अवसर सुनिश्चित करना आवश्यक है। केवल तभी भारत का समग्र विकास संभव है।

Q-5 'Unemployment is the only cause for the prevalent poverty in India' Comment

ANSWER-

"भारत में व्याप्त गरीबी के लिए बेरोजगारी ही एकमात्र कारण है" - इस पर टिप्पणी

भारत में गरीबी एक जटिल और बहु-आयामी समस्या है, और इसे केवल बेरोजगारी तक सीमित करना उचित नहीं होगा। बेरोजगारी निश्चित रूप से गरीबी के प्रमुख कारणों में से एक है, लेकिन यह अकेला कारण नहीं है। गरीबी के कई अन्य पहलू हैं जो इस समस्या को और अधिक गहरा करते हैं।

1. बेरोजगारी का प्रभाव: बेरोजगारी निश्चित रूप से गरीबी को बढ़ाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, क्योंकि जब लोगों के पास काम नहीं होता, तो उनके पास आय का कोई स्रोत नहीं होता और वे जीवन के बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ हो जाते हैं। बेरोजगार युवा, जो शिक्षा और कौशल प्राप्त करने के बावजूद रोजगार नहीं पा रहे हैं, गरीबी की ओर बढ़ सकते हैं।

2. शिक्षा और कौशल का अभाव: भारत में एक बड़ा हिस्सा ऐसे लोगों का है, जिनके पास उचित शिक्षा या कौशल का अभाव है। बेरोजगारी के कारण यह समूह भी गरीबी में रहता है, लेकिन अगर इन लोगों को सही प्रकार की शिक्षा और कौशल दिया जाए, तो वे बेहतर रोजगार प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षा और कौशल की कमी को भी गरीबी का एक कारण माना जा सकता है।

3. सामाजिक असमानता: भारत में सामाजिक असमानता, जैसे जातिवाद, लिंग भेदभाव और आर्थिक असमानताएँ, भी गरीबी के महत्वपूर्ण कारण हैं। समाज में विशेष समूहों के पास सीमित अवसर होते हैं, जिससे वे शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सेवाओं जैसे बुनियादी अधिकारों से वंचित रहते हैं। यह असमानता गरीबी को बढ़ाती है, जबकि बेरोजगारी अकेले इसकी पूरी व्याख्या नहीं कर सकती।

4. भूमि और संसाधन वितरण का असमानता: भारत में भूमि और संसाधनों का असमान वितरण भी गरीबी का एक कारण है। गरीब किसान और ग्रामीण परिवार जो छोटे भूमि धारक होते हैं, वे अक्सर उपज के उचित मूल्य, तकनीकी सहायता और जलवायु परिवर्तन के कारण कर्ज में डूबे होते हैं। इसके कारण उनकी जीवन-यापन की स्थिति बिगड़ जाती है, और यह गरीबी के चक्र को मजबूत करता है।

5. स्वास्थ्य और पोषण की समस्या: भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव और कुपोषण भी गरीबी के कारण हैं। जब लोगों को बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएँ और पर्याप्त पोषण नहीं मिलता, तो उनकी कार्यक्षमता घट जाती है, जिससे वे बेरोजगार रहते हैं या कम आय वाले काम करने को मजबूर होते हैं। यह गरीबी को और बढ़ाता है।

6. नीति और प्रशासनिक विफलताएँ: भारत में विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं और नीतियों की विफलता भी गरीबी के प्रमुख कारणों में शामिल है। हालांकि कई योजनाएं बनाई जाती हैं, लेकिन उनका सही तरीके से कार्यान्वयन नहीं होता, भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अक्षमता के कारण लाभ सही लोगों तक नहीं पहुंच पाता। इसका परिणाम गरीब लोगों के लिए आय के अवसरों का अभाव होता है।

निष्कर्ष: इस प्रकार, यह कहना कि "बेरोजगारी ही भारत में गरीबी का एकमात्र कारण है" पूरी तरह से सही नहीं होगा। बेरोजगारी गरीबी के एक महत्वपूर्ण कारण है, लेकिन इसके अलावा शिक्षा, सामाजिक असमानताएँ, संसाधनों का असमान वितरण, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी और नीति विफलताएँ भी गरीबी को बढ़ाने में योगदान देती हैं। गरीबी के समस्या का समाधान इन सभी कारणों को ध्यान में रखते हुए समग्र दृष्टिकोण से ही किया जा सकता है।

Q-6 Do you agree with the statement that crime against women in India is increasing?

ANSWER-

क्या भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़ रहे हैं? - इस पर विचार

भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराधों की बढ़ती घटनाएँ एक गंभीर चिंता का विषय बन गई हैं। हालांकि अपराधों की बढ़ोतरी के कारणों में कई सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पहलू शामिल हैं, लेकिन यह कहना कि महिलाओं के खिलाफ अपराधों में बढ़ोतरी हो रही है, पूरी तरह से सही है। इसके पीछे कई कारण हैं, जिनका विस्तार से विश्लेषण किया जा सकता है।

**1. यौन अपराधों में बढ़ोतरी: पिछले कुछ दशकों में महिलाओं के खिलाफ यौन अपराधों में वृद्धि हुई है। निर्भया कांड (2012) एक प्रमुख उदाहरण है, जिसमें एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और उसकी निर्मम हत्या कर दी गई। इस घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया और महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के बारे में गंभीर चर्चा शुरू की। इसके बाद, अन्य कई बलात्कार और यौन उत्पीड़न के मामले सामने आए हैं, जैसे हैदराबाद सामूहिक बलात्कार (2019) और उन्नाव रेप केस

2. घरेलू हिंसा: महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा भी एक आम समस्या बन चुकी है, जो कई बार सार्वजनिक रूप से सामने नहीं आती। अधिकांश घरेलू हिंसा के मामले घरेलू परिवेश में होते हैं और इनकी रिपोर्टिंग में कमी होती है। हालाँकि, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट के अनुसार, घरेलू हिंसा के मामलों में वृद्धि हुई है, विशेष रूप से लॉकडाउन के दौरान। महामारी के दौरान बढ़ते तनाव, बेरोजगारी और आर्थिक संकट ने महिलाओं के खिलाफ हिंसा को और बढ़ावा दिया।

3. कन्या भ्रूण हत्या और बाल विवाह: भारत में कन्या भ्रूण हत्या और बाल विवाह के मामले भी महिलाओं के खिलाफ अपराधों के रूप में देखे जा सकते हैं। अनेक ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी लड़कियों के जन्म को लेकर सामाजिक अस्वीकार्यता है, जिसके परिणामस्वरूप कन्या भ्रूण हत्या के मामले बढ़ रहे हैं। इसके अलावा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में बाल विवाह के मामलों की संख्या में भी चिंताजनक वृद्धि हुई है, जिससे लड़कियों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है।

4. पीछा करना और साइबर अपराध: महिलाओं के खिलाफ साइबर अपराध भी बढ़ रहे हैं, जिसमें ऑनलाइन उत्पीड़न, पीछा करना और अश्लील सामग्री भेजना शामिल है। दिल्ली, बेंगलुरु और मुंबई जैसे शहरों में कई घटनाएं सामने आई हैं, जहाँ महिलाओं को सोशल मीडिया और अन्य डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के जरिए परेशान किया गया। इस प्रकार के अपराधों में वृद्धि से महिलाओं का मानसिक तनाव बढ़ता है और उनकी सुरक्षा को लेकर चिंता भी गहरी होती है।

5. राजनीतिक और सामाजिक संदर्भ: महिलाओं के खिलाफ अपराधों के बढ़ने का एक कारण यह भी है कि सामाजिक और राजनीतिक बदलावों की कमी ने महिलाओं को बराबरी के अधिकार और सुरक्षा दिलाने में कई चुनौतियाँ उत्पन्न की हैं। हालांकि कानून में सुधार और जागरूकता के बावजूद, कई क्षेत्रों में महिलाओं के खिलाफ अपराधों को हल्के तौर पर लिया जाता है, जिससे अपराधियों को सजा मिलने में देरी होती है या वे बच जाते हैं। बलात्कार कानूनों में बदलाव और महिला सुरक्षा योजनाओं के बावजूद महिलाओं के खिलाफ हिंसा की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं।

निष्कर्ष: भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में वृद्धि एक गंभीर मुद्दा है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यद्यपि सरकार और समाज ने इस समस्या के समाधान के लिए कई कदम उठाए हैं, लेकिन इसके कारणों में गहरे सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दे हैं। महिलाओं को समान अधिकार और सुरक्षा प्रदान करने के लिए व्यापक सामाजिक सुधार, कड़ी कानून व्यवस्था और जागरूकता अभियान की आवश्यकता है। इस दिशा में अगर सार्थक प्रयास किए जाएं, तो महिलाओं के खिलाफ अपराधों को नियंत्रित किया जा सकता है।

Q-7 Oceans are the store-house of resources.' - Write a short note.

Ans-

महासागर प्राकृतिक संसाधनों के विशाल भंडार हैं, जो मानवता के लिए कई प्रकार से लाभकारी हैं। ये जैविक संसाधन, खनिज, ऊर्जा स्रोत और जलवायु नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

1.      जैविक संसाधन (Biological Resources): महासागर मछलियाँ, झींगे, शंख और समुद्री पौधों का स्रोत हैं, जो मानव आहार और औषधि निर्माण में उपयोग होते हैं। उदाहरण के लिए, मछली उद्योग से लाखों लोग जुड़े हैं, और समुद्र से प्राप्त रसायनों से कैंसर जैसी बीमारियों का इलाज संभव है।

2.      खनिज संसाधन (Mineral Resources): महासागर में तेल, गैस, और अन्य खनिज पाए जाते हैं। समुद्र से तेल और गैस का वैश्विक ऊर्जा आपूर्ति में योगदान करता है। उदाहरण के लिए, मध्य पूर्व में समुद्र तटीय तेल भंडार हैं।

3.      ऊर्जा स्रोत (Energy Sources): महासागर से लहरों और ज्वार-भाटा के माध्यम से ऊर्जा उत्पन्न की जाती है। उदाहरण के लिए, फ्रांस और कोरिया में तटीय ऊर्जा संयंत्र सफलतापूर्वक संचालित हो रहे हैं।

4.      वाणिज्यिक समुद्री मार्ग (Commercial Maritime Routes): महासागर वैश्विक व्यापार का मुख्य मार्ग हैं। व्यापारिक माल, जैसे कच्चा माल और खाद्य सामग्री, समुद्र मार्ग से परिवहन होते हैं। उदाहरण के लिए, चीन और भारत के बीच अधिकांश व्यापार समुद्र द्वारा होता है।

5.      जलवायु नियंत्रण (Climate Regulation): महासागर जलवायु और मौसम को नियंत्रित करते हैं, जैसे El Niño और La Niña घटनाएँ। महासागर से कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित होकर ग्रीनहाउस प्रभाव को नियंत्रित करते हैं।

महासागर मानव जीवन और विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, और इन संसाधनों का सतत और विवेकपूर्ण उपयोग आवश्यक है। महासागरों के संरक्षण से ही स्थिर और समृद्ध भविष्य संभव है।

Q-8 Soil profile plays an important role in agriculture. Do you agree?

Ans-

हां, मैं सहमत हूँ कि मृदा का प्रोफ़ाइल कृषि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मृदा प्रोफ़ाइल मृदा की संरचना, गुण, और उसके विभिन्न परतों की जानकारी प्रदान करती है, जो पौधों की वृद्धि और कृषि उत्पादन के लिए आवश्यक हैं।

मृदा के प्रोफ़ाइल में विभिन्न परतें होती हैं, जैसे -होरिज़न (ऊपरी अवक्षयक परत), -होरिज़न (ऊपरी खेती योग्य परत), बी-होरिज़न (खनिजों की परत), और सी-होरिज़न (मूल चट्टान) इन परतों की संरचना और गुण कृषि कार्यों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं:

1.      पानी का संचयन: मृदा की जल धारण क्षमता सीधे खेती पर असर डालती है। यदि मृदा की उपरी परत जल अवशोषित करने में सक्षम नहीं होती, तो पानी का रिसाव और सूखा समस्या बन सकते हैं।

2.      नाइट्रोजन और पोषक तत्वों की उपलब्धता: मृदा की प्रोफ़ाइल में मौजूद पोषक तत्वों और जैविक पदार्थों का स्तर पौधों के विकास के लिए महत्वपूर्ण है। यह मृदा की उर्वरता और खेती की सफलता को प्रभावित करता है।

3.      मृदा का पीएच स्तर: मृदा का पीएच स्तर पौधों की वृद्धि पर प्रभाव डालता है। यदि मृदा का पीएच स्तर पौधों की आवश्यकता के अनुसार नहीं होता, तो पोषक तत्वों का अवशोषण प्रभावित हो सकता है।

4.      मृदा का वातवरण: मृदा की संरचना में वायु का संचरण भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि पौधों की जड़ों को ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। मृदा का सही वायुप्रवाह पौधों के लिए उपयुक्त वातावरण प्रदान करता है।

इस प्रकार, मृदा प्रोफ़ाइल का अध्ययन और सही मृदा प्रबंधन कृषि की सफलता के लिए अत्यंत आवश्यक है। मृदा की स्थिति और गुणों को समझकर सही प्रकार की फसलें उगाई जा सकती हैं और कृषि उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है।

Q-9 Throw light on Rohingya refugee in South Asia.

Ans-

रोहिंग्या शरणार्थी दक्षिण एशिया में एक गंभीर मानवीय संकट का रूप ले चुके हैं। ये लोग मुख्य रूप से म्यांमार (बर्मा) के राखाइन राज्य से आते हैं, जहाँ उन्हें कई दशकों से भेदभाव, हिंसा, और उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है। रोहिंग्या मुसलमानों की स्थिति म्यांमार में अत्यंत कठिन है, और उनके नागरिक अधिकारों की लगातार उपेक्षा की जाती है।

रोहिंग्या संकट की उत्पत्ति:

रोहिंग्या मुस्लिम समुदाय म्यांमार के राखाइन राज्य में एक लंबे समय से रह रहा है, लेकिन म्यांमार की सरकार और अधिकांश बर्मा के लोग उन्हें एक अलग जातीय या धार्मिक समूह के रूप में मानते हैं। म्यांमार की सरकार ने उन्हें नागरिकता नहीं दी और उन्हें अवैध प्रवासी मान लिया। उन्हें सरकारी सुविधाओं, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, और नौकरी के अधिकारों से वंचित कर दिया गया। इसके अलावा, म्यांमार सेना द्वारा 2017 में किए गए सैन्य हमलों ने लाखों रोहिंग्याओं को अपनी जान बचाने के लिए अपने घरों से भागने पर मजबूर कर दिया।

शरणार्थी संकट:

रोहिंग्या समुदाय के लाखों लोग म्यांमार से भागकर बांगलादेश, भारत, और अन्य देशों में शरण लेने के लिए मजबूर हो गए। बांगलादेश में काकस बाजार और आसपास के क्षेत्रों में दुनिया का सबसे बड़ा शरणार्थी शिविर स्थित है, जहाँ लगभग 1 मिलियन से अधिक रोहिंग्या शरणार्थी रह रहे हैं। इन शरणार्थियों के पास बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव है, जैसे साफ पानी, स्वच्छता, स्वास्थ्य सेवाएँ, और शिक्षा। यह स्थिति उन्हें मानवाधिकारों की गंभीर कमी का सामना करवा रही है।

भारत और अन्य देशों में स्थिति:

भारत में भी रोहिंग्या शरणार्थियों की संख्या बढ़ रही है। हालांकि, भारतीय सरकार ने इस समुदाय को नागरिकता देने से इंकार किया है और उनका सामना सीमा सुरक्षा और अवैध प्रवास के मुद्दों से हो रहा है। भारत में रहने वाले रोहिंग्याओं को सुरक्षा, आवास, और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी का सामना करना पड़ता है। वहीं, अन्य दक्षिण एशियाई देशों में भी रोहिंग्या शरणार्थियों के खिलाफ भेदभाव और उत्पीड़न की घटनाएँ सामने आती हैं।

मानवीय संकट और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया:

रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से समर्थन की आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र, मानवाधिकार संगठन, और विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ रोहिंग्याओं के अधिकारों की रक्षा और उन्हें पुनःस्थापित करने के लिए सक्रिय रूप से काम कर रही हैं। बांगलादेश और म्यांमार के बीच शांति प्रक्रिया को बढ़ावा देने के प्रयास किए गए हैं, लेकिन इस संकट का समाधान अभी भी दूर है।

रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस उनके घरों में लौटने का अधिकार मिलना चाहिए, और उनके अधिकारों का सम्मान किया जाना चाहिए। साथ ही, दक्षिण एशिया में इस संकट को हल करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और स्थिरता की आवश्यकता है।

Q-10 Write a short note on Nine Number channel and its strategic importance.

Ans-

नाइन नंबर चैनल और इसका सामरिक महत्व

नाइन नंबर चैनल (Nine Degree Channel) एक प्रमुख जलमार्ग है जो हिंद महासागर में स्थित है और भारत के लक्षद्वीप द्वीपसमूह को मालदीव से अलग करता है। यह चैनलउत्तरी अक्षांश पर स्थित है, जिसके कारण इसका नाम "नाइन डिग्री चैनल" पड़ा। यह जलमार्ग समुद्र के भीतर एक प्राकृतिक मार्ग के रूप में कार्य करता है और इसमें दोनों द्वीपसमूहों के बीच 50 किलोमीटर (लगभग) की दूरी है।

सामरिक महत्व:

  1. महत्वपूर्ण समुद्री मार्ग: नाइन डिग्री चैनल हिंद महासागर के महत्वपूर्ण समुद्री मार्गों में से एक है, जो एशिया, अफ्रीका और मध्य पूर्व के बीच व्यापारिक परिवहन को आसान बनाता है। यह चैनल शिपिंग और मालवाहन के लिए एक रणनीतिक मार्ग है, खासकर तेल, गैस और अन्य महत्वपूर्ण वस्तुओं के लिए।
  2. सैन्य रणनीतिक दृष्टिकोण: भारत के लिए नाइन डिग्री चैनल सामरिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह चैनल भारतीय सुरक्षा और रक्षा के संदर्भ में एक संवेदनशील मार्ग है, क्योंकि यह भारत के समुद्री क्षेत्र और लक्षद्वीप द्वीपसमूह की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। भारतीय नौसेना के लिए यह चैनल किसी भी प्रकार की सैन्य गतिविधियों या विरोधी कार्रवाई की स्थिति में रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हो सकता है।
  3. पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस के मार्ग: नाइन डिग्री चैनल से होकर मध्य पूर्व से एशिया तक तेल और गैस की आपूर्ति होती है, जिससे यह वैश्विक ऊर्जा आपूर्ति के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है।
  4. सामरिक अनुकूलता: यह चैनल भारत के लक्षद्वीप और मालदीव के बीच एक प्राकृतिक सीमा के रूप में कार्य करता है, जिससे समुद्री निगरानी और सुरक्षा की कार्यवाहियाँ सरल होती हैं।

इस प्रकार, नाइन डिग्री चैनल का सामरिक महत्व केवल व्यापारिक दृष्टिकोण से है, बल्कि यह भारतीय समुद्री सुरक्षा और वैश्विक ऊर्जा मार्गों के संदर्भ में भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है।

Section-B

Q-11 Describe the architectural features of the temples of Nagar style.

Answer-

नागर शैली भारतीय मंदिर वास्तुकला की एक प्रमुख शैली है, जो मुख्य रूप से उत्तर भारत में प्रचलित है। यह शैली हिंदू मंदिरों के निर्माण में उपयोग होती है और इसमें विशिष्ट वास्तुशिल्प विशेषताएँ होती हैं, जो इसे अन्य शैलीयों से अलग करती हैं। नागर शैली की वास्तुकला की विशेषताएँ मंदिरों की संरचना, डिजाइन और सजावट में प्रकट होती हैं।

नागर शैली के मंदिरों के प्रमुख वास्तुशिल्प तत्व:

  1. शिखर (Shikhara) या व्रत (Vimana): नागर शैली के मंदिरों की सबसे प्रमुख विशेषता शिखर या व्रत है। यह मंदिर के शीर्ष पर स्थित एक शिखर के रूप में दिखाई देता है, जो उर्ध्व (ऊपर की ओर) की ओर फैलता है। यह शिखर अक्सर एक विस्तृत और गोल आकार में होता है और इसके ऊपर एक छोटा मुकुट या कलश स्थित होता है। शिखर की ऊँचाई और आकार मंदिर की भव्यता को बढ़ाते हैं।

उदाहरण: कांचीवर्मन मंदिर, खजुराहो के मंदिर।

  1. मंडप (Mandapa): नागर शैली के मंदिरों में एक प्रमुख तत्व मंडप होता है, जो मंदिर का बाहरी हॉल या सभा मंडप होता है। यह आमतौर पर एक स्तंभित hall होता है, जो पूजा और धार्मिक अनुष्ठानों के लिए प्रयुक्त होता है। मंडप का आकार और संरचना बहुत भव्य होती है।
  2. आंतरिक गर्भगृह (Garbhagriha): गर्भगृह वह स्थान होता है, जहाँ भगवान की मूर्ति स्थापित होती है। नागर शैली के मंदिरों में गर्भगृह सामान्यतः एक संकुचित, अंधेरा और ध्यान केंद्रित क्षेत्र होता है। यह मंदिर के सबसे महत्वपूर्ण भाग के रूप में कार्य करता है और यहाँ आमतौर पर केवल एक मुख्य देवता की मूर्ति होती है।
  3. आकर्षक दीवारों की सजावट और नक्काशी (Wall carvings and decoration): नागर शैली के मंदिरों में दीवारों पर अत्यधिक सजावट और नक्काशी की जाती है। इन नक्काशियों में देवी-देवताओं, मिथकों, धार्मिक दृश्यों और जीवन के विभिन्न पहलुओं का चित्रण किया जाता है। मूर्तिकला की यह विशेषता मंदिर की भव्यता और आस्था को व्यक्त करती है।
  4. आकर्षक प्रवेश द्वार (Torana or Entrance): नागर शैली में मंदिरों के प्रवेश द्वार पर भी खास ध्यान दिया जाता है। आमतौर पर, एक भव्य और विशाल प्रवेश द्वार (torana) होता है, जिसे मूर्तियों और चित्रित चित्रों से सजाया जाता है। यह द्वार मुख्य मंदिर में प्रवेश करने से पहले भक्तों का ध्यान आकर्षित करता है।
  5. छत की संरचना (Roof structure): नागर शैली के मंदिरों में छत की संरचना बहुत खास होती है। यह अक्सर कई स्तरों में बनी होती है, जो ऊपर की ओर विस्तार करती जाती है। हर स्तर को शिखर से जोड़ा जाता है और उसकी साज-सज्जा अत्यधिक ध्यानपूर्वक की जाती है।
  6. पार्श्व टावर (Parapet Towers): नागर शैली के मंदिरों में कई छोटे-छोटे टावर होते हैं, जो मुख्य शिखर से जुड़े होते हैं। ये टावर मंदिर के चारों ओर स्थित होते हैं और उन्हें 'अंश शिखर' या 'गर्भ शिखर' भी कहा जाता है। ये छोटे टावर या शिखर स्थापत्य को और अधिक भव्यता प्रदान करते हैं।
  7. तल और स्तंभ (Plinth and Columns): नागर शैली में मंदिर का आधार (प्लिंथ) एक मजबूत और विस्तृत संरचना होती है। इसके ऊपर स्तंभ होते हैं, जो मंदिर की दीवारों और मंडप का समर्थन करते हैं। स्तंभों की नक्काशी भी विशेष होती है, जो वास्तुकला को और अधिक आकर्षक बनाती है।

उदाहरण:

  • खजुराहो मंदिर: यह भारतीय वास्तुकला का एक अद्भुत उदाहरण है, जो नागर शैली के सभी तत्वों को दर्शाता है। यहाँ के मंदिरों में शिखर, स्तंभ, और दीवारों पर उकेरी गई नक्काशियाँ खासतौर पर प्रसिद्ध हैं।
  • बिनायक मंदिर (उत्तर प्रदेश): यहाँ भी शिखर और अन्य तत्व नागर शैली की खास पहचान को प्रदर्शित करते हैं।
  • कोणार्क सूर्य मंदिर (उड़ीसा): इसका शिखर और जटिल नक्काशी नागर शैली की भव्यता और स्थापत्य कला को दर्शाती है।

निष्कर्ष:

नागर शैली के मंदिर भारतीय स्थापत्य कला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इन मंदिरों की वास्तुकला और डिज़ाइन केवल धार्मिक आस्था को प्रदर्शित करते हैं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक धरोहर और कला का भी आदान-प्रदान करते हैं। नागर शैली की ये विशेषताएँ मंदिरों को अद्वितीय और आकर्षक बनाती हैं, और वे भारतीय धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं को जीवित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

Q-11 Underline ideological dimensions of the uprising of 1857.

Answer-

1857 का विद्रोह, जिसे भारतीय उपमहाद्वीप में "पहला स्वतंत्रता संग्राम" या "सिपाही विद्रोह" कहा जाता है, भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी। यह विद्रोह ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ भारतीय सैनिकों (सिपाहियों) और आम जनता द्वारा किए गए संघर्ष का परिणाम था। हालांकि इसे मुख्य रूप से सैन्य विद्रोह के रूप में देखा जाता है, लेकिन इसके पीछे गहरी विचारधारात्मक और सांस्कृतिक कारण भी थे। यह विद्रोह भारतीय समाज में ब्रिटिश शासन के खिलाफ व्यापक असंतोष का प्रतीक था, और इसके विचारधारात्मक आयाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शुरुआती बिंदु के रूप में महत्वपूर्ण थे।

1857 के विद्रोह के विचारधारात्मक आयाम:

  1. धार्मिक असंतोष: ब्रिटिश शासन ने भारतीय समाज में धार्मिक मुद्दों पर हस्तक्षेप किया था, जिससे भारतीयों में गहरी धार्मिक असंतोष की भावना उत्पन्न हुई। विशेष रूप से, ब्रिटिशों ने हिंदू और मुसलमानों के धार्मिक परंपराओं को प्रभावित किया, जैसे कि सिपाही विद्रोह से पहले ब्रिटिश सरकार ने गाय की चर्बी से बने कारतूस का उपयोग शुरू किया था, जो हिंदू और मुसलमान दोनों के लिए आपत्तिजनक था। इस कदम ने धार्मिक भावनाओं को आहत किया और विद्रोह की चिंगारी को बढ़ावा दिया।
  2. ब्रिटिश औपनिवेशिक नीति: ब्रिटिश शासन ने भारतीय समाज की राजनीतिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक धारा को अपनी मर्जी से बदलने की कोशिश की थी। भारतीय ज़मीनों को ज़बरदस्ती ब्रिटिश नियंत्रण में लिया गया था, और भारतीयों के खिलाफ भेदभावपूर्ण नीतियाँ लागू की गई थीं। भारतीय रेजीमेंट्स का चयन, वेतन में भेदभाव, और ज़मीनदारी प्रथा में बदलाव ने भी भारतीयों में गहरा असंतोष उत्पन्न किया।
  3. सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव: ब्रिटिश सरकार ने भारतीय समाज में सांस्कृतिक बदलावों को लागू किया, जैसे कि विधवा पुनर्विवाह, सती प्रथा का उन्मूलन और शिक्षा का पश्चिमीकरण। हालांकि ये कुछ बदलाव सकारात्मक थे, लेकिन भारतीय समाज में उन्हें बाहरी हस्तक्षेप और धार्मिक परंपराओं के उल्लंघन के रूप में देखा गया। भारतीय समाज में ब्रिटिश सरकार के इन क़दमों ने विद्रोह की विचारधारा को प्रेरित किया।
  4. प्राकृतिक और सामाजिक असमानताएँ: ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने भारतीय समाज में प्राकृतिक और सामाजिक असमानताओं को और बढ़ावा दिया। भारतीय किसानों पर भारी करों का बोझ डाला गया, जिससे उन्हें आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। भारतीय सैनिकों को भी ब्रिटिश सेना के मुकाबले कम वेतन और अन्य भेदभावपूर्ण शर्तों का सामना करना पड़ा। इसका परिणाम यह हुआ कि उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई और विद्रोह किया।
  5. स्वतंत्रता और आत्म-निर्णय की भावना: 1857 का विद्रोह केवल ब्रिटिश शासन के खिलाफ था, बल्कि यह भारतीय समाज में स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय की भावना को भी बढ़ावा दे रहा था। भारतीयों ने अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष किया, और यह आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक आरंभिक चरण था।
  6. राजनीतिक असंतोष और व्यक्तिगत स्वतंत्रता: भारतीय नरेशों और रजवाड़ों को ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा अपमानित किया गया था। ब्रिटिश सरकार ने भारतीय रियासतों के साथ किए गए समझौतों का उल्लंघन किया और इन्हें कमजोर किया। उदाहरण के लिए, "लापसी" (doctrine of lapse) नीति के तहत ब्रिटिश सरकार ने रियासतों के उत्तराधिकारियों की स्थिति को चुनौती दी और उनके साम्राज्य को ब्रिटिश शासन में मिला लिया। इसने भारतीय शासकों में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह की भावना को उत्पन्न किया।
  7. राष्ट्रीयता की भावना: 1857 के विद्रोह के दौरान, विभिन्न भारतीय समूहों और जातियों ने एकजुट होकर ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष किया। हालांकि यह एक स्थानीय विद्रोह के रूप में शुरू हुआ था, लेकिन यह धीरे-धीरे एक राष्ट्रीय आंदोलन में बदल गया। हिंदू और मुसलमान, दोनों ने अपने धर्म, संस्कृति और राष्ट्र की रक्षा के लिए मिलकर संघर्ष किया, जिससे एक राष्ट्रीयता की भावना का उदय हुआ।

निष्कर्ष:

1857 का विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पहला बड़ा और महत्वपूर्ण चरण था, जिसमें धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक कारणों से एक गहरी विचारधारात्मक भूमिका निभाई। यह विद्रोह केवल ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक सैन्य संघर्ष नहीं था, बल्कि यह भारतीय जनता के भीतर स्वतंत्रता, आत्मनिर्णय और समानता की भावना का प्रतीक था। हालांकि यह विद्रोह असफल हो गया, लेकिन इसने भारतीय समाज में एक जागरूकता उत्पन्न की और भारतीय राष्ट्रीयता को जन्म दिया, जो भविष्य में स्वतंत्रता संग्राम का आधार बनी।

Q-13 Evaluate the role of Bismarck in the unification of Germany.

ANS-

ओटो वॉन बिस्मार्क (Otto von Bismarck) 19वीं सदी के महानतम जर्मन राजनेताओं में से एक थे और उन्हें जर्मनी के एकीकरण के वास्तुकार के रूप में जाना जाता है। बिस्मार्क ने जर्मन संघीय राज्यों को एकजुट करने के लिए अपनी कूटनीति, युद्ध, और राजनीतिक चातुर्य का कुशलतापूर्वक उपयोग किया, जिसके परिणामस्वरूप 1871 में जर्मनी का एकीकरण हुआ और एक एकीकृत जर्मन साम्राज्य की स्थापना हुई। बिस्मार्क की राजनीतिक दृष्टि, रणनीतिक सोच, और कूटनीतिक चालों ने जर्मनी के एकीकरण को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

1. प्रारंभिक परिस्थितियाँ और बिस्मार्क का कूटनीतिक दृष्टिकोण:

19वीं सदी के मध्य में जर्मन भूमि छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्यों और प्रिंसिपालिटी (राज्य) में बंटी हुई थी। इन राज्यों में सबसे महत्वपूर्ण थे प्रूसिया, ऑस्ट्रिया, बैवेरिया और सैक्सोनी। बिस्मार्क का लक्ष्य था कि प्रूसिया को इन राज्यों में नेतृत्व करने वाला राष्ट्र बनाना और अंततः जर्मनी को एकीकृत करना। उनका प्रमुख उद्देश्य था कि जर्मनी एक केंद्रीकृत शक्ति बने, और इसके लिए उन्हें दो प्रमुख समस्याओं का सामना करना पड़ा:

  • ऑस्ट्रिया का प्रभाव: ऑस्ट्रिया जर्मन संघ का सदस्य था, और उसकी राजनीति और कूटनीति का प्रभाव प्रूसिया पर भारी था।
  • फ्रांस के खिलाफ सुरक्षा: फ्रांस को एक शक्ति के रूप में देखना, जो जर्मनी के एकीकरण के खिलाफ हो सकता था।

2. युद्ध की कूटनीतिश्लीसविग-होल्स्टीन युद्ध (1864):

बिस्मार्क ने जर्मनी के एकीकरण के लिए युद्धों का सहारा लिया। 1864 में बिस्मार्क ने ऑस्ट्रिया के साथ मिलकर डेनमार्क के खिलाफ युद्ध छेड़ा। इस युद्ध का उद्देश्य श्लीसविग और होल्स्टीन के क्षेत्रों पर कब्जा करना था, जो जर्मन भाषी थे। युद्ध के परिणामस्वरूप, श्लीसविग और होल्स्टीन डेनमार्क से हटा कर जर्मन राज्यों के अधीन हो गए। बिस्मार्क ने इस युद्ध को कूटनीतिक रूप से सफलतापूर्वक समाप्त किया और जर्मन राज्यों के बीच एकता को बढ़ावा दिया।

3. ऑस्ट्रो-प्रूसियन युद्ध (1866) और जर्मन संघ का विघटन:

बिस्मार्क ने जर्मन संघ के भीतर एकता स्थापित करने के लिए ऑस्ट्रिया के साथ युद्ध का मार्ग चुना। 1866 में ऑस्ट्रो-प्रूसियन युद्ध (जिसे सात सप्ताह का युद्ध भी कहा जाता है) हुआ, जिसमें प्रूसिया ने ऑस्ट्रिया को पराजित किया। इस युद्ध ने जर्मन संघ को समाप्त कर दिया और इसके परिणामस्वरूप प्रूसिया ने उत्तरी जर्मन संघ (North German Confederation) की स्थापना की, जिसमें प्रूसिया के नेतृत्व में उत्तरी जर्मन राज्यों का एक संघ बना। बिस्मार्क ने इसे सैन्य और कूटनीतिक तरीके से हासिल किया, जिससे प्रूसिया की शक्ति बढ़ी और जर्मनी के एकीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया गया।

4. फ्रांको-प्रूसियन युद्ध (1870-71):

बिस्मार्क की सबसे महत्वपूर्ण कूटनीतिक चाल फ्रांको-प्रूसियन युद्ध थी। बिस्मार्क ने फ्रांस के साथ एक युद्ध उकसाया, और इसे एक रणनीतिक चाल के रूप में प्रयोग किया। बिस्मार्क ने फ्रांसीसी सम्राट लुईस-नपोलेन III को यह विश्वास दिलाया कि प्रूसिया और फ्रांस के बीच युद्ध अनिवार्य है। फ्रांस द्वारा प्रूसिया के खिलाफ युद्ध की घोषणा करने के बाद, पूरे जर्मनी ने एकजुट होकर प्रूसिया के साथ युद्ध में भाग लिया, और 1871 में फ्रांस को पराजित किया। इस युद्ध ने जर्मन राज्यों के बीच राष्ट्रीयता की भावना को और मजबूत किया।

5. जर्मन साम्राज्य का गठन (1871):

फ्रांको-प्रूसियन युद्ध के परिणामस्वरूप, 18 जनवरी 1871 को बिस्मार्क ने हॉलिचा पैलेस में जर्मनी के साम्राज्य की स्थापना की घोषणा की। इस दिन जर्मन सम्राट के रूप में विलियम I को ताज पहनाया गया, और प्रूसिया के नेतृत्व में एकीकृत जर्मन साम्राज्य का गठन हुआ। बिस्मार्क ने जर्मन राज्यों को एकजुट किया और इस प्रकार जर्मनी को एक केंद्रीकृत शक्ति बना दिया, जिसमें प्रूसिया की प्रमुख भूमिका थी।

6. बिस्मार्क की कूटनीतिक नीति और अंतर्राष्ट्रीय स्थिति:

बिस्मार्क का दृष्टिकोण यह था कि जर्मनी को यूरोप में एक स्थिर और मजबूत शक्ति बनाना है। उन्होंने अपने समय में कई कूटनीतिक नीतियों को लागू किया, जैसे कि यूरोप में फ्रांस को अलग-थलग करना, और रूस और ऑस्ट्रिया के साथ रिश्ते बनाए रखना। इन कूटनीतियों के द्वारा बिस्मार्क ने जर्मन साम्राज्य को अंतरराष्ट्रीय राजनीति में स्थिरता और प्रभावी स्थिति दिलाई।

निष्कर्ष:

ओटो वॉन बिस्मार्क का जर्मनी के एकीकरण में महत्वपूर्ण योगदान था। उनकी कूटनीतिक चालों, युद्धों और राजनीतिक रणनीतियों ने जर्मन राज्यों को एकजुट करने में अहम भूमिका निभाई। बिस्मार्क ने यह सिद्ध कर दिया कि वह केवल एक महान सैन्य नेता ही नहीं, बल्कि एक अत्यंत कुशल कूटनीतिज्ञ भी थे। उनका यह योगदान जर्मनी को यूरोप की एक प्रमुख शक्ति बनाने में सहायक सिद्ध हुआ और साथ ही उन्होंने यूरोप में शक्ति संतुलन को भी बदल दिया।

Q-14 How did Indian culture affect the world during Corona pandemic period?

Ans-

कोरोना महामारी (COVID-19) ने दुनिया भर में जीवन की धारा को प्रभावित किया, जिससे समाज, अर्थव्यवस्था, और व्यक्तिगत जीवन में भारी परिवर्तन हुए। महामारी के इस कठिन दौर में, भारतीय संस्कृति ने केवल भारत बल्कि विश्वभर में भी महत्वपूर्ण प्रभाव डाला। भारत की प्राचीन संस्कृति और परंपराएँ, जैसे योग, आयुर्वेद, ध्यान, और परिवारिक मूल्य, महामारी के दौरान विश्वभर में प्रासंगिक हो गईं और लोगों को मानसिक, शारीरिक, और भावनात्मक संतुलन बनाए रखने में मदद की।

1. योग और ध्यान का प्रचार:

कोरोना महामारी के दौरान, जब लोग घरों में बंद हो गए और मानसिक तनाव और अवसाद (depression) बढ़ने लगे, तब भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पहलूयोग और ध्यानवैश्विक स्तर पर लोकप्रिय हो गया। योग और ध्यान केवल शारीरिक स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण हैं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य के लिए भी बेहद फायदेमंद साबित होते हैं।

  • विश्व स्वास्थ्य के लिए योग: विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और कई अन्य स्वास्थ्य संस्थाओं ने योग और ध्यान को मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बनाए रखने के तरीके के रूप में प्रोत्साहित किया। भारत सरकार और योग शिक्षकों ने ऑनलाइन माध्यमों से दुनिया भर में योग सिखाने के प्रयास किए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 21 जून को 'अंतरराष्ट्रीय योग दिवस' मनाने का आह्वान किया, जो अब हर साल एक वैश्विक घटना बन चुकी है। महामारी के दौरान, योग ने लाखों लोगों को शांति, संतुलन और स्वास्थ्य में सुधार की दिशा में मार्गदर्शन किया।
  • ध्यान और मानसिक शांति: ध्यान का अभ्यास महामारी के दौरान बढ़ा, क्योंकि लोग घर पर रहते हुए मानसिक शांति और शारीरिक व्यायाम के लिए तरीकों की तलाश कर रहे थे। भारतीय ध्यान पद्धतियाँ, जैसे विपस्सना और प्रणायाम, ने मानसिक तनाव कम करने और आत्म-जागरूकता को बढ़ावा देने में मदद की।

2. आयुर्वेद का महत्व:

आयुर्वेद, भारत की प्राचीन चिकित्सा पद्धति, ने महामारी के दौरान वैश्विक समुदाय में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। आयुर्वेद में प्राकृतिक उपचार, आहार, और जीवनशैली से जुड़ी सलाह दी जाती है, जो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त मानी जाती है।

  • प्राकृतिक उपचार: आयुर्वेद में प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करने के लिए कई उपायों पर ध्यान दिया गया है, जैसे हल्दी, अदरक, तुलसी, और नीम का सेवन। महामारी के दौरान, लोग इन घरेलू उपचारों का उपयोग करने के लिए प्रेरित हुए।
  • आयुर्वेद के उपायों की वैश्विक स्वीकृति: कोविड-19 से बचाव के लिए कई आयुर्वेदिक विधियाँ विश्वभर में लोकप्रिय हुईं। विश्वभर के लोग आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियाँ और हर्बल उपचार का उपयोग करने के लिए प्रेरित हुए, जो भारतीय संस्कृति के स्वास्थ्य के प्रति दृष्टिकोण को उजागर करते हैं।

3. परिवार और समुदाय की भावना:

कोरोना महामारी के दौरान, जब लोग एक-दूसरे से शारीरिक रूप से दूर रहे, तब भारतीय संस्कृति के परिवार और समुदाय आधारित मूल्यों ने विशेष महत्व प्राप्त किया। भारत में परिवार को केंद्रित भूमिका दी जाती है, और यह मूल्य वैश्विक स्तर पर भी प्रासंगिक हो गए।

  • परिवार के मूल्य: भारतीय संस्कृति में परिवार का स्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण है। महामारी के दौरान, यह पारंपरिक मूल्य अधिक प्रासंगिक हो गए, क्योंकि परिवार एक-दूसरे का सहारा बने, एक-दूसरे की देखभाल की, और मानसिक संतुलन बनाए रखने में मदद की।
  • समुदाय की एकता: महामारी के समय में, भारतीय समाज ने सामूहिक रूप से एकजुट होकर एक-दूसरे की मदद की, जैसे राशन वितरण, दवाओं की आपूर्ति, और सामाजिक कल्याण कार्यों में। इस प्रकार, समुदाय आधारित एकता और सहयता की भावना ने भारतीय संस्कृति को वैश्विक स्तर पर प्रेरणादायक बना दिया।

4. आध्यात्मिकता और धार्मिक विश्वास:

कोरोना महामारी ने लोगों को जीवन के अनिश्चितता के बारे में सोचने पर मजबूर किया और इसने आध्यात्मिकता की ओर प्रवृत्त किया। भारतीय संस्कृति के आध्यात्मिक पहलू, जैसे भगवद गीता, उपनिषद, और अन्य धार्मिक ग्रंथ, ने लोगों को मानसिक शांति, सहनशीलता और आत्मविश्वास का अनुभव कराया।

  • आध्यात्मिक ग्रंथों का प्रभाव: महामारी के दौरान कई लोग भगवद गीता, ध्यान और ध्यान संबंधित पाठों को पढ़कर मानसिक संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे थे। इन धार्मिक ग्रंथों से लोगों को जीवन की वास्तविकता, मृत्यु, और दुखों को सहन करने की शिक्षा मिली।
  • विश्वव्यापी आध्यात्मिक आंदोलन: भारतीय संतों और गुरुओं ने महामारी के दौरान ऑनलाइन माध्यमों के जरिए अपने धार्मिक और आध्यात्मिक शिक्षाएं साझा की। स्वामी विवेकानंद, श्री श्री रवि शंकर और अन्य भारतीय गुरु ने ऑनलाइन माध्यमों से लाखों लोगों को मानसिक शांति और आत्मनिर्भरता का संदेश दिया।

5. संस्कृतिक कार्यक्रमों और कला का प्रसार:

महामारी के दौरान, भारतीय कला और संस्कृति के कार्यक्रमों ने भी वैश्विक स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लोग घरों में बंद होने के कारण ऑनलाइन भारतीय संगीत, नृत्य, और कला के कार्यक्रमों में भाग लेने लगे। भारतीय कला रूपों, जैसे भरतनाट्यम, कथक, और भारतीय शास्त्रीय संगीत, ने दुनिया भर में लोगों को सांस्कृतिक मनोरंजन और मानसिक शांति दी।

निष्कर्ष:

कोरोना महामारी के दौरान भारतीय संस्कृति ने दुनिया भर में शारीरिक, मानसिक, और भावनात्मक संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। योग, आयुर्वेद, आध्यात्मिकता, और पारंपरिक पारिवारिक मूल्य केवल भारतीयों के लिए बल्कि विश्वभर में लोगों के लिए सहायक बने। भारतीय संस्कृति ने यह सिद्ध कर दिया कि यह केवल एक भौतिक या धार्मिक दृष्टिकोण नहीं है, बल्कि यह एक जीवनशैली है जो मानवता को जोड़ने और मानसिक और शारीरिक संतुलन बनाए रखने में मदद करती है।

Q-15 Evaluate the role of woman organisations in woman empowerment.

Ans-

महिला संगठनों का महिला सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण योगदान है, क्योंकि ये संगठनों ने महिलाओं को समाज में अपनी स्थिति को समझने और बदलने के लिए कई प्लेटफॉर्म और अवसर प्रदान किए हैं। महिला संगठनों के कार्यों ने महिला अधिकारों की रक्षा, उनके शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाई, और उन्हें समाज के प्रत्येक क्षेत्र में समान अवसर दिलाने के लिए संघर्ष किया। ये संगठन केवल महिलाओं को जागरूक करने के लिए काम करते हैं, बल्कि उन्हें अपनी पहचान बनाने, शिक्षा, स्वास्थ्य, और कानूनी अधिकारों के बारे में जानकारी देने के साथ-साथ समाज में अपनी आवाज उठाने के लिए प्रेरित करते हैं।

1. महिला अधिकारों की रक्षा और जागरूकता फैलाना:

महिला संगठनों ने महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए कई आंदोलनों और अभियानों का संचालन किया है। यह संगठनों ने महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न, समान वेतन, और संपत्ति अधिकारों जैसे मुद्दों पर जागरूकता फैलाने का काम किया है। इन संगठनों ने महिला उत्पीड़न और अन्य भेदभावपूर्ण प्रथाओं के खिलाफ विरोध प्रदर्शन आयोजित किए हैं और कानूनी सख्ती के लिए सरकारों पर दबाव डाला है।

·         महिला सुरक्षा: महिला संगठनों ने महिला सुरक्षा को प्राथमिकता दी है, विशेष रूप से घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न के मामलों में। उदाहरण के तौर पर, "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" जैसे अभियान ने महिलाओं के लिए जागरूकता पैदा की है, ताकि वे अपनी सुरक्षा और अधिकारों के लिए लड़ सकें।

·         महिला कानून और नीति: महिला संगठनों ने महिला अधिकारों के संबंध में कई कानूनी बदलावों के लिए संघर्ष किया है, जैसे महिलाओं के खिलाफ हिंसा की रोकथाम हेतु मजबूत कानून, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ कानून, और महिलाओं के संपत्ति अधिकारों के लिए सुधार।

2. शिक्षा और कौशल विकास:

महिला संगठनों ने शिक्षा और कौशल विकास के क्षेत्र में भी अहम भूमिका निभाई है। इन संगठनों ने महिलाओं के लिए विशेष शिक्षा कार्यक्रम और प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन किया है, ताकि वे अपनी क्षमताओं को पहचान सकें और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन सकें।

·         लड़कियों की शिक्षा: कई महिला संगठनों ने ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में लड़कियों के लिए शिक्षा के अवसर प्रदान किए हैं। इन संगठनों ने यह सुनिश्चित किया कि लड़कियों को प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा प्राप्त हो, ताकि वे अपने जीवन में बेहतर निर्णय ले सकें।

·         कौशल विकास: महिलाओं को रोजगार के अवसर प्रदान करने और उनका कौशल बढ़ाने के लिए महिला संगठनों ने कौशल विकास प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन किया है। इस प्रकार, इन संगठनों ने महिलाओं को स्वरोजगार के लिए सक्षम किया और उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता दिलाई।

3. आर्थिक स्वतंत्रता और स्वरोजगार:

महिला संगठनों ने महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के लिए कई पहल की हैं। उन्होंने महिलाओं को अपने स्वयं के व्यवसायों को शुरू करने के लिए प्रेरित किया और उन्हें वित्तीय साक्षरता के बारे में भी जानकारी दी।

·         महिला उद्यमिता: महिला संगठनों ने कई महिला उद्यमियों को सफलता की ओर मार्गदर्शन किया है। उदाहरण के लिए, "सेल्फ-हेल्प ग्रुप्स" (Self-Help Groups) ने महिलाओं को छोटे व्यवसाय शुरू करने के लिए प्रेरित किया, जिससे वे अपने परिवार की आर्थिक स्थिति में सुधार कर सकें।

·         वित्तीय साक्षरता: महिला संगठनों ने महिलाओं को वित्तीय साक्षरता प्रदान करने के लिए कई कार्यक्रम चलाए हैं, जिससे महिलाएं अपने पैसे का सही तरीके से प्रबंधन कर सकें और खुद को आर्थिक रूप से स्वतंत्र बना सकें।

4. सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन:

महिला संगठनों ने समाज में महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रहों और रूढ़िवादिता को चुनौती दी है। उन्होंने महिलाओं के अधिकारों और उनकी स्थिति में सुधार के लिए सांस्कृतिक और सामाजिक मान्यताओं को बदलने के लिए संघर्ष किया है। महिला संगठनों का उद्देश्य महिलाओं के लिए समाज में समान अवसर और समान दर्जा प्राप्त करना है।

·         सामाजिक आंदोलनों का नेतृत्व: महिला संगठनों ने महिला सशक्तिकरण के लिए कई आंदोलनों का नेतृत्व किया है, जैसे "नारी अधिकार आंदोलन", "स्वास्थ्य और पोषण के अधिकारों के लिए आंदोलन", और "महिला शिक्षा का प्रचार" इन आंदोलनों ने समाज में महिलाओं के अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ाई और महिलाओं को अपनी स्थिति और अधिकारों के बारे में सचेत किया।

·         सांस्कृतिक परिवर्तन: महिला संगठनों ने महिलाओं की आवाज़ को प्रमुख मंचों पर पहुंचाने के लिए सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताओं को चुनौती दी है। इन संगठनों ने महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में शिक्षित किया और उन्हें अपने विचार रखने का स्वतंत्रता दिलवाया।

5. राजनीतिक भागीदारी:

महिला संगठनों ने महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाओं और अभियानों का संचालन किया है। इन संगठनों ने महिलाओं को राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया, ताकि वे अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठा सकें और राजनीतिक निर्णयों में प्रभावी भूमिका निभा सकें।

·         महिला वोटिंग और राजनीतिक प्रतिनिधित्व: महिला संगठनों ने महिलाओं को मतदान के अधिकार के बारे में जागरूक किया और उन्हें राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने महिला प्रतिनिधित्व को बढ़ाने के लिए कानून बनाने की दिशा में भी प्रयास किए हैं।

·         राजनीतिक शिक्षा: महिला संगठनों ने महिलाओं को राजनीति और सरकार की कार्यप्रणाली के बारे में शिक्षा दी है, जिससे वे अपनी आवाज को संसद और अन्य राजनीतिक मंचों तक पहुंचा सकें।

निष्कर्ष:

महिला संगठनों ने महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन्होंने महिलाओं को उनके अधिकारों, शिक्षा, स्वास्थ्य, और आर्थिक स्वतंत्रता के प्रति जागरूक किया है। इसके साथ ही, इन संगठनों ने महिलाओं को समाज में एक मजबूत और समान दर्जा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया है। महिलाओं की स्थिति में सुधार, समाज में समानता की दिशा में और महिलाओं को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाने के लिए महिला संगठनों की भूमिका निर्विवाद है। इनकी मेहनत और संघर्ष ने महिला सशक्तिकरण की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं।

Q-16 The process of urbanization leads to development or devastation in the society.Write your views.

Ans-

शहरीकरण एक प्रक्रिया है, जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों से लोग शहरों की ओर स्थानांतरित होते हैं, और शहरों में विकास की दर बढ़ती है। यह प्रक्रिया दुनिया भर में तेजी से बढ़ रही है, और इसके प्रभावों को लेकर विचार-विमर्श किया जा रहा है। शहरीकरण के कारण कुछ क्षेत्रों में विकास की एक नई दिशा देखने को मिलती है, जबकि कुछ क्षेत्रों में विनाशकारी प्रभाव भी उत्पन्न हो सकते हैं। इस प्रक्रिया के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं को समझने के लिए हमें इसे गहराई से विश्लेषित करना होगा।

1. विकास के पहलू:

a) आर्थिक विकास: शहरीकरण के परिणामस्वरूप, शहरों में औद्योगिकीकरण और व्यापारिक गतिविधियाँ बढ़ती हैं, जिससे रोजगार के अवसर उत्पन्न होते हैं। शहरों में बड़े उद्योग, व्यापारिक संस्थान, और सेवा क्षेत्र विकसित होते हैं, जो रोजगार और आय के स्रोत प्रदान करते हैं।

  • उदाहरण: जैसे चीन और भारत के बड़े शहरों में शहरीकरण की प्रक्रिया ने आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा दिया है। बेंगलुरु और मुंबई जैसे शहरों में तकनीकी, व्यापार, और सेवा क्षेत्र का विकास हुआ है, जिससे लाखों लोगों को रोजगार मिला है।

b) बुनियादी ढांचे का विकास: शहरीकरण के साथ शहरों में बेहतर बुनियादी ढांचे का निर्माण होता है, जैसे सड़कें, अस्पताल, स्कूल, और अन्य सार्वजनिक सेवाएँ। शहरों में स्वास्थ्य, शिक्षा और परिवहन सेवाओं में सुधार होता है, जो लोगों के जीवन स्तर को बेहतर बनाता है।

  • उदाहरण: शहरी क्षेत्रों में बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएँ और शिक्षा प्रणाली का उदाहरण दिल्ली, मुंबई और पुणे जैसी महानगरों में देखा जा सकता है, जहां उच्च गुणवत्ता की स्वास्थ्य सेवाएँ और शिक्षा प्रदान की जाती हैं।

c) सामाजिक अवसर: शहरीकरण महिलाओं और अन्य समाजिक समूहों के लिए नए अवसर लेकर आता है। शहरों में विविधता और खुलापन होता है, जो विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों से जुड़े लोगों को एक साथ लाता है। यह विविधता विचारों और नवाचार को बढ़ावा देती है।

  • उदाहरण: शहरी क्षेत्रों में महिलाएं विभिन्न पेशेवर कार्यों में सक्रिय रूप से भाग ले सकती हैं, जैसे शिक्षिका, डॉक्टर, इंजीनियर, आदि, जो ग्रामीण क्षेत्रों में कम देखने को मिलता है।

2. विनाश के पहलू:

a) पर्यावरणीय समस्याएँ: शहरीकरण के दौरान प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक उपयोग होता है, जिससे पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। वनों की कटाई, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और जल संकट जैसी समस्याएँ उभरती हैं।

  • उदाहरण: शहरी क्षेत्रों में बढ़ते प्रदूषण और बढ़ते वाहन ट्रैफिक के कारण वायु गुणवत्ता में गिरावट आई है, जिससे स्वास्थ्य समस्याएँ जैसे अस्थमा और सांस की बीमारियाँ बढ़ रही हैं। दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में प्रदूषण की समस्या विकराल हो गई है।

b) सामाजिक असमानताएँ: शहरीकरण के दौरान समाज में असमानताएँ भी उत्पन्न होती हैं। बड़ी संख्या में लोग शहरों की ओर प्रवास करते हैं, लेकिन हर किसी को समान अवसर नहीं मिलते। कुछ लोग संपन्न होते हैं, जबकि अन्य गरीब और गरीब होते जाते हैं। यह असमानता अपराध और सामाजिक तनाव को बढ़ावा देती है।

  • उदाहरण: शहरी क्षेत्रों में झुग्गी-झोपड़ी और बस्ती क्षेत्रों का निर्माण होता है, जहां लोग बुनियादी सुविधाओं से वंचित रहते हैं। इस तरह की असमानताएँ सामाजिक और आर्थिक तनाव उत्पन्न करती हैं।

c) सांस्कृतिक धरोहर और पारंपरिक जीवन का ह्रास: शहरीकरण के कारण पारंपरिक जीवनशैली और सांस्कृतिक धरोहर का ह्रास होता है। जैसे-जैसे लोग ग्रामीण इलाकों से शहरों में स्थानांतरित होते हैं, वे अपनी पारंपरिक संस्कृति और जीवनशैली को छोड़ देते हैं। इसके परिणामस्वरूप, स्थानीय परंपराएँ और संस्कृति खत्म होने लगती हैं, और एक प्रकार का सांस्कृतिक सन्नाटा उत्पन्न होता है।

  • उदाहरण: पुराने गांवों और छोटे शहरों में पारंपरिक त्यौहार और रीति-रिवाजों का पालन किया जाता था, जो अब शहरीकरण के कारण कम होते जा रहे हैं। ग्रामीण जीवन के सरल और प्राकृतिक तरीके अब शहरों में नहीं देखे जाते।

3. निष्कर्ष:

शहरीकरण का प्रभाव समाज पर दोनों रूपों में पड़ता हैविकास और विनाश। जहां एक ओर शहरीकरण ने आर्थिक विकास, सामाजिक अवसर और बुनियादी ढांचे में सुधार किया है, वहीं दूसरी ओर इसके पर्यावरणीय, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव विनाशकारी हो सकते हैं।

इसलिए, शहरीकरण को यदि सही दिशा में किया जाए, तो यह समाज के लिए विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि सरकारें और अन्य संगठन शहरी विकास की योजना इस प्रकार बनाएं कि पर्यावरण का संरक्षण, सामाजिक समानता और सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षण भी सुनिश्चित किया जा सके। इसके साथ ही, शहरीकरण के दौरान उत्पन्न होने वाली समस्याओं का समाधान एक समन्वित और सतत दृष्टिकोण से किया जाए।

Q-17 Discuss the causes and consequences of internal human migration in India.

Ans-

भारत में आंतरिक मानव प्रवासन (Internal Migration) एक व्यापक और महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक प्रक्रिया है, जिसमें लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थायी या अस्थायी रूप से स्थानांतरित होते हैं। यह प्रवासन विभिन्न कारणों से होता है, और इसके परिणाम समाज, अर्थव्यवस्था और व्यक्तिगत जीवन पर गहरे प्रभाव डालते हैं। भारत में आंतरिक प्रवासन का पैटर्न बहुत विविध है, जिसमें ग्रामीण से शहरी क्षेत्रों में, राज्य के भीतर और विभिन्न राज्यों के बीच प्रवास शामिल है।

1. आंतरिक मानव प्रवासन के कारण

a) आर्थिक कारण:

  • रोजगार के अवसर: सबसे प्रमुख कारणों में से एक है बेहतर रोजगार के अवसरों की तलाश। शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के चलते शहरों में रोजगार के अवसर बढ़े हैं, जिनकी तलाश में लोग ग्रामीण इलाकों से शहरों की ओर पलायन करते हैं। विशेष रूप से निर्माण, सेवा, और औद्योगिक क्षेत्रों में काम की तलाश में प्रवासन बढ़ा है।
  • कृषि संकट: ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि पर निर्भरता कम हो रही है, और कृषि संकट, प्राकृतिक आपदाएँ और भूमि की कमी के कारण लोग अपने गांवों से शहरों में रोजगार की तलाश में पलायन करते हैं।
  • उदाहरण: महाराष्ट्र, दिल्ली, पंजाब जैसे राज्यों में लोग रोजगार की तलाश में रहे हैं, खासकर निर्माण कार्य, घरेलू नौकरियों और छोटे व्यवसायों के लिए।

b) सामाजिक कारण:

  • शिक्षा: बेहतर शिक्षा के अवसरों के लिए ग्रामीण और छोटे शहरों के लोग बड़े शहरों में प्रवास करते हैं। बड़ी संख्या में लोग उच्च शिक्षा के लिए प्रमुख शहरों की ओर पलायन करते हैं।
  • स्वास्थ्य सुविधाएँ: बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की तलाश में लोग ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर जाते हैं, जहाँ बेहतर चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं।
  • परिवारिक कारण: कभी-कभी पारिवारिक कारणों से भी प्रवासन होता है, जैसे विवाह, पारिवारिक पुनर्मिलन या किसी सदस्य की देखभाल के लिए प्रवास।

c) पर्यावरणीय कारण:

  • प्राकृतिक आपदाएँ: बाढ़, सूखा, भूस्खलन और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के कारण लोग अपने घरों और भूमि को छोड़कर दूसरे क्षेत्रों में पलायन करते हैं।
  • जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन और इसके प्रभाव, जैसे कृषि भूमि की उत्पादकता में गिरावट, जल संकट और बर्फबारी का असामान्य पैटर्न, प्रवासन को बढ़ावा देते हैं।
  • उदाहरण: 2015 में बिहार में बाढ़ के बाद बड़ी संख्या में लोग दूसरे स्थानों पर पलायन कर गए। सूखा प्रभावित क्षेत्रों से भी लोग जल संकट के कारण पलायन करते हैं।

d) राजनीतिक कारण:

  • संघर्ष और हिंसा: कुछ स्थानों पर जातीय, धार्मिक या राजनीतिक संघर्षों के कारण लोग अपने घरों को छोड़कर शांति और सुरक्षा की तलाश में अन्य स्थानों पर प्रवास करते हैं।
  • सरकारी योजनाएँ: कभी-कभी सरकारी नीतियों और योजनाओं के कारण भी लोग स्थानांतरित होते हैं, जैसे पुनर्वास योजनाएँ, बड़ी परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण आदि।

2. आंतरिक मानव प्रवासन के परिणाम

a) सामाजिक परिणाम:

  • सांस्कृतिक विविधता: शहरी क्षेत्रों में प्रवास के कारण सांस्कृतिक विविधता में वृद्धि होती है, क्योंकि विभिन्न स्थानों और पृष्ठभूमियों से लोग मिलकर रहते हैं। इससे सामाजिक मेलजोल और विविधता को बढ़ावा मिलता है, लेकिन कभी-कभी इससे सांस्कृतिक संघर्ष भी उत्पन्न हो सकते हैं।
  • परिवार की संरचना में बदलाव: प्रवास के कारण परिवारों में संरचनात्मक बदलाव होते हैं। कई बार लोग अपने परिवारों को छोड़कर अकेले रोजगार के लिए प्रवास करते हैं, जिससे परिवारों के बीच दूरियाँ बढ़ सकती हैं।
  • भाषाई और जातीय विविधता: प्रवास से विभिन्न भाषाओं और जातियों के लोगों के बीच मिश्रण होता है, जो कभी-कभी सामाजिक तनाव का कारण बन सकता है, विशेष रूप से जब स्थानीय समुदाय प्रवासी समुदाय को लेकर पूर्वाग्रह या असहिष्णुता रखते हैं।

b) आर्थिक परिणाम:

  • शहरीकरण का विकास: आंतरिक प्रवासन के परिणामस्वरूप शहरों में जनसंख्या बढ़ती है, जो शहरीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा देती है। यह आर्थिक विकास के अवसर प्रदान करता है, लेकिन इसके साथ ही शहरी अवसंरचना पर दबाव भी बढ़ता है।
  • रोजगार का सृजन: प्रवासन से श्रमिकों की मांग बढ़ती है, जिससे विभिन्न उद्योगों और सेवाओं में रोजगार के अवसर सृजित होते हैं। हालांकि, अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले प्रवासी श्रमिकों को अक्सर खराब कार्य परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है।
  • कृषि संकट: ग्रामीण क्षेत्रों में प्रवासी श्रमिकों के अभाव में कृषि उत्पादन में कमी सकती है, जिससे कृषि संकट और खाद्य सुरक्षा पर प्रभाव पड़ सकता है।

c) पर्यावरणीय परिणाम:

  • प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव: शहरी क्षेत्रों में प्रवास के कारण जल, ऊर्जा, आवास, परिवहन जैसी बुनियादी सुविधाओं पर दबाव बढ़ता है, जिससे पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
  • प्राकृतिक संसाधनों की अराजक खपत: शहरीकरण के साथ प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक उपयोग होता है, जिससे जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और वनस्पति संकट जैसी समस्याएँ पैदा हो सकती हैं।

d) राजनीतिक परिणाम:

  • आवास और पुनर्वास की समस्याएँ: बढ़ती शहरी आबादी के कारण, शहरों में बस्तियों और झुग्गियों का निर्माण होता है, जो राजनीतिक और प्रशासनिक समस्याओं का कारण बनता है।
  • जातीय और धार्मिक तनाव: कभी-कभी प्रवासी समुदायों के बीच सामाजिक या राजनीतिक संघर्ष उत्पन्न हो सकते हैं, खासकर जब यह समुदाय अपने अधिकारों और संसाधनों के लिए संघर्ष करते हैं।

3. निष्कर्ष:

आंतरिक मानव प्रवासन भारत में एक जटिल प्रक्रिया है, जिसका कई सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय परिणाम हो सकते हैं। यह प्रक्रिया विकास और संकट दोनों का कारण बन सकती है, और इसके प्रभावों को समझते हुए इसे संतुलित रूप से प्रबंधित करना आवश्यक है। प्रवासन के कारण उत्पन्न होने वाली समस्याओं का समाधान तभी संभव है जब सरकारें, समाज और प्रवासी श्रमिक मिलकर इसका प्रबंधन करें। इसके लिए नीतियाँ बनानी चाहिए जो प्रवासियों के अधिकारों का संरक्षण करें, शहरी अवसंरचना में सुधार करें और स्थानीय समुदायों के साथ सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व सुनिश्चित करें।

Q- 18 Discuss the relationship between El Nino and south-east monsoon in India and its impact on agriculture.

Answer-

एल निनो (El Niño) और दक्षिण-पूर्व मानसून (South-East Monsoon) के बीच संबंध एक महत्वपूर्ण जलवायु पहलू है जो भारत की कृषि व्यवस्था को प्रभावित करता है। यह संबंध दोनों घटनाओं के जलवायु पर प्रभाव, बारिश के पैटर्न, और कृषि उत्पादन पर पड़ने वाले प्रभाव के संदर्भ में समझा जा सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में, एल निनो और मानसून के बीच संबंध और कृषि पर इसके प्रभाव का गहन अध्ययन किया जाता है।

1. एल निनो का परिचय और इसके कारण

एल निनो एक प्राकृतिक जलवायु घटना है, जो प्रत्येक 2 से 7 वर्षों के अंतराल पर होती है। इसमें, उष्ण महासागर के मध्य और पूर्वी हिस्सों में जल का तापमान सामान्य से अधिक बढ़ जाता है। यह स्थिति प्रशांत महासागर में समुद्र की धाराओं के पैटर्न को बदल देती है, जिससे वैश्विक मौसम पैटर्न में परिवर्तन होता है। एल निनो की स्थिति के दौरान, भारत के मानसून पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिससे मौसम में असमानताएँ उत्पन्न होती हैं।

2. दक्षिण-पूर्व मानसून और एल निनो का संबंध

भारत में मानसून के मौसम का मुख्य कारण दक्षिण-पश्चिम मानसून होता है, जो जून से सितंबर के बीच होता है। इसके साथ-साथ, एल निनो की घटना भी दक्षिण-पूर्व मानसून (जो दक्षिण-पूर्व एशिया के क्षेत्रों में बारिश का मुख्य स्रोत होता है) के पैटर्न को प्रभावित करती है। एल निनो के कारण, प्रशांत महासागर का तापमान बढ़ने से हवा की धाराएँ और बादल निर्माण की प्रक्रिया प्रभावित होती है, जिससे भारत के दक्षिण-पश्चिम मानसून में कमी सकती है।

एल निनो और मानसून के बीच संबंध:

  • जब एल निनो की घटना होती है, तो भारत में दक्षिण-पश्चिम मानसून की वर्षा में कमी आती है, खासकर उत्तर-पश्चिम भारत में।
  • एल निनो के दौरान, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से आने वाली नमी कम हो जाती है, जिससे मानसून कमजोर हो जाता है और वर्षा में अनियमितता उत्पन्न होती है।
  • दक्षिण भारत, खासकर तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में, वर्षा में कमी और सूखा जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं, क्योंकि दक्षिण-पूर्व मानसून की भूमिका भी प्रभावित होती है।

3. अर्थव्यवस्था और कृषि पर प्रभाव

भारत में कृषि अधिकांशतः मानसूनी वर्षा पर निर्भर करती है, और मानसून में असमानताएँ या देर से वर्षा का होना सीधे कृषि उत्पादन को प्रभावित करता है। जब एल निनो की स्थिति उत्पन्न होती है, तो इसका कृषि उत्पादन पर गंभीर प्रभाव पड़ता है।

a) वर्षा में कमी: एल निनो के प्रभाव से भारत में वर्षा की कमी होती है, जिससे भूमि की नमी कम हो जाती है और फसलों के लिए पानी की उपलब्धता में बाधा उत्पन्न होती है। यह विशेष रूप से खरीफ फसलों (जैसे धान, मक्का, सोयाबीन) के लिए खतरनाक होता है, क्योंकि ये फसलें मानसूनी वर्षा पर निर्भर होती हैं।

b) सूखा और पानी की कमी: एल निनो के कारण, वर्षा की कमी के कारण कुछ क्षेत्रों में सूखा और पानी की गंभीर कमी हो सकती है, जिससे किसानों को कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। यह स्थिति पानी की आपूर्ति, जलाशयों और नदियों के जल स्तर को भी प्रभावित करती है, जो सिंचाई के लिए आवश्यक होते हैं।

c) फसल उत्पादन में गिरावट: एल निनो के कारण फसल उत्पादन में गिरावट हो सकती है। जैसे, 2009 और 2015 में एल निनो के कारण भारत में फसल उत्पादन प्रभावित हुआ था, विशेष रूप से धान और मक्का जैसी मुख्य फसलों में। इन वर्षों में, कृषि संकट और खाद्य संकट जैसी समस्याएँ उभरीं, जिससे किसानों को बड़े पैमाने पर आर्थिक नुकसान हुआ।

d) अनिश्चितता और किसानों की स्थिति: एल निनो के प्रभाव के कारण किसानों को मौसम की अनिश्चितता का सामना करना पड़ता है, जो उनकी कृषि योजनाओं को प्रभावित करता है। यदि वर्षा का पैटर्न सही नहीं होता, तो किसानों को सही समय पर बीज बोने या फसलों की देखभाल करने में मुश्किल होती है। इसके परिणामस्वरूप, उपज में गिरावट और कृषि संकट उत्पन्न होते हैं।

e) राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा पर प्रभाव: एल निनो के कारण कृषि उत्पादन में गिरावट होने से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा पर भी असर पड़ता है। अनाज, फल, और सब्जियों की कमी हो सकती है, जिससे खाद्य कीमतों में वृद्धि हो सकती है और उपभोक्ताओं के लिए महंगाई का सामना करना पड़ता है।

4. एल निनो के प्रभाव का उदाहरण:

  • 2009 का एल निनो: 2009 में एल निनो के कारण भारत में मानसून कमजोर हुआ और वर्षा में कमी आई, जिससे देश में सूखा और कृषि संकट उत्पन्न हुआ। खासकर मध्य भारत और दक्षिण भारत में धान, मक्का, सोयाबीन जैसी फसलों का उत्पादन कम हुआ था।
  • 2015 का एल निनो: 2015 में भी एल निनो के प्रभाव से भारत में कृषि संकट हुआ। विशेष रूप से कर्नाटक, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे राज्य प्रभावित हुए, जहाँ धान और गेहूँ की फसलें सूख गईं। यह स्थिति कृषि उत्पादन को घटाने और खाद्य सुरक्षा को खतरे में डालने का कारण बनी।

5. निष्कर्ष:

एल निनो और दक्षिण-पूर्व मानसून के बीच का संबंध भारतीय कृषि के लिए महत्वपूर्ण है। एल निनो के कारण मानसून में असमानताएँ उत्पन्न होती हैं, जिससे वर्षा कम होती है और कृषि उत्पादन में गिरावट आती है। इस प्रभाव को नियंत्रित करने के लिए भारत को जलवायु परिवर्तन, मौसम पूर्वानुमान, और सिंचाई के प्रभावी उपायों पर ध्यान देना आवश्यक है। साथ ही, किसानों को जलवायु अनुकूल तकनीकों और सूखा प्रतिरोधी फसलों के बारे में जागरूक करने की आवश्यकता है, ताकि वे इन प्राकृतिक घटनाओं से निपट सकें।

Q-19 Write a short note on temperate cyclones. How it impacts India ?

Ans-

शीतोष्ण चक्रवात (Temperate Cyclone) एक प्रकार का मौसमीय तूफान है जो मध्य अक्षांशों (30° से 60° उत्तर और दक्षिण) के क्षेत्रों में उत्पन्न होता है। यह मुख्यतः समशीतोष्ण क्षेत्रों में पाया जाता है और यह अधिकतर भूमध्य रेखा से दूर के क्षेत्रों में, विशेष रूप से यूरोप, उत्तर अमेरिका और दक्षिणी हेमिस्फियर में होते हैं। ये चक्रवात वायुमंडलीय अस्थिरता, ठंडी और गर्म वायु धाराओं के टकराव से उत्पन्न होते हैं।

शीतोष्ण चक्रवात का सामान्य प्रकार और कारण

शीतोष्ण चक्रवात ठंडी और गर्म वायु धाराओं के टकराव से उत्पन्न होते हैं। जब गर्म, हल्की और आर्द्र हवा ठंडी, भारी और शुष्क हवा से टकराती है, तो चक्रीय तूफान उत्पन्न होते हैं। इन तूफानों में, हवा के दबाव का अंतर बहुत अधिक होता है, जिससे तेज़ हवाएँ, भारी वर्षा और तूफान की स्थिति बनती है।

विशेषताएँ:

  1. हवा की दिशा: यह चक्रवात आमतौर पर पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ते हैं। उत्तरी गोलार्ध में ये घड़ी की दिशा में और दक्षिणी गोलार्ध में घड़ी की विपरीत दिशा में घूमते हैं।
  2. तेज़ हवाएँ: इन चक्रवातों में तेज़ हवाएँ और आंधियाँ होती हैं, जो 100 किमी प्रति घंटा से भी अधिक हो सकती हैं।
  3. वर्षा: इन चक्रवातों के कारण भारी वर्षा होती है, जो बाढ़ और जलभराव का कारण बन सकती है।
  4. सतह पर दबाव में गिरावट: शीतोष्ण चक्रवातों के केंद्र में हवा का दबाव बहुत कम होता है, जिससे हवा ऊपर की ओर चढ़ती है और तूफान की गति बढ़ती है।

भारत पर शीतोष्ण चक्रवात का प्रभाव

भारत में, शीतोष्ण चक्रवात विशेष रूप से पूर्वी तट (ओडिशा, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश) और दक्षिणी तट (तमिलनाडु, कर्नाटक) पर प्रभावित करते हैं। हालांकि भारत का अधिकांश क्षेत्र उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में आता है, फिर भी शीतोष्ण चक्रवातों का असर भारतीय उपमहाद्वीप पर पड़ता है, खासकर सर्दियों में (नवंबर से फरवरी) इन चक्रवातों का भारत पर निम्नलिखित प्रभाव होता है:

  1. तूफान और तेज़ हवाएँ:
    • शीतोष्ण चक्रवातों के कारण तेज़ हवाएँ चलती हैं जो विशेष रूप से तटीय क्षेत्रों में भयंकर नुकसान कर सकती हैं। भारत में ओडिशा, पश्चिम बंगाल, और आंध्र प्रदेश जैसे तटीय राज्य इन तूफानों से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।
    • उदाहरण: 1999 में ओडिशा में आया "ऑरिकेन फणी" एक शीतोष्ण चक्रवात था, जिसने तटीय क्षेत्रों में व्यापक तबाही मचाई थी। इसमें 100 किमी प्रति घंटा से अधिक की हवाएँ चल रही थीं।
  2. भारी वर्षा और बाढ़:
    • शीतोष्ण चक्रवातों के कारण भारी वर्षा लाते हैं, जिससे तटीय क्षेत्रों में बाढ़ और जलभराव की समस्या उत्पन्न होती है। ये चक्रवात अक्सर बहुत बड़ी मात्रा में वर्षा करते हैं, जिससे नदियों का जलस्तर बढ़ जाता है और बाढ़ जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
    • उदाहरण: 1977 में दक्षिण भारत के तटीय क्षेत्र में आए शीतोष्ण चक्रवात ने भारी वर्षा के कारण बाढ़ की स्थिति उत्पन्न की थी।
  3. मछली पकड़ने और तटीय समुदायों पर असर:
    • तटीय क्षेत्रों में मछली पकड़ने वाली नौकाओं और अन्य जल परिवहन पर इन तूफानों का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। मछुआरे इन तूफानों के कारण अपने व्यवसाय को खो देते हैं, और तटीय क्षेत्रों में आपातकालीन सेवाएँ जुटाने में कठिनाई होती है।
    • इन तूफानों के कारण मछलियों का नुकसान भी होता है, जिससे खाद्य सुरक्षा पर असर पड़ता है।
  4. क्षति और नष्ट किए गए इन्फ्रास्ट्रक्चर:
    • शीतोष्ण चक्रवातों से सड़क, रेल मार्ग, और बिजली की आपूर्ति को प्रभावित कर सकते हैं। इन तूफानों के कारण संचार व्यवस्था भी बाधित हो जाती है, और तटीय क्षेत्रों में आवागमन की स्थिति कठिन हो जाती है।
    • इन्फ्रास्ट्रक्चर को पुनर्निर्माण में काफी समय और संसाधन लगते हैं।

भारत में शीतोष्ण चक्रवात की तैयारी

भारत सरकार और संबंधित राज्य सरकारें शीतोष्ण चक्रवात के प्रभाव से निपटने के लिए पहले से तैयारी करती हैं। इनमें निम्नलिखित उपाय शामिल हैं:

  1. तटीय क्षेत्रों में चेतावनी प्रणाली: मौसम विभाग द्वारा तेज़ हवाओं, भारी वर्षा और तूफान की चेतावनियाँ जारी की जाती हैं ताकि लोग सुरक्षित स्थानों पर जा सकें।
  2. आपातकालीन बचाव अभियान: चक्रवात के प्रभाव से पहले और बाद में बचाव कार्य किए जाते हैं, जिसमें आपातकालीन सेवाओं द्वारा राहत सामग्री वितरित की जाती है।
  3. इन्फ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करना: तटीय क्षेत्रों में इन्फ्रास्ट्रक्चर को मजबूत बनाने के प्रयास किए जाते हैं, जैसे समुद्र तटों पर तटबंधों का निर्माण, ताकि तूफान से होने वाली क्षति कम हो सके।

निष्कर्ष:

शीतोष्ण चक्रवात भारत के तटीय क्षेत्रों में प्रभावी होते हैं, विशेष रूप से सर्दियों के मौसम में। इन चक्रवातों का प्रभाव कृषि, मछली पालन, जीवनयापन और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर पड़ता है। हालांकि, भारत ने इन तूफानों से निपटने के लिए प्रभावी चेतावनी प्रणाली और बचाव अभियान विकसित किए हैं, फिर भी इन चक्रवातों के कारण नुकसान की संभावना बनी रहती है। इन घटनाओं से निपटने के लिए सतर्कता और तैयारियों की आवश्यकता है, ताकि समाज को इन प्राकृतिक आपदाओं से बचाया जा सके।

Q- 20 Discuss India's mineral development policy.

Answer-

भारत एक खनिज संसाधनों से समृद्ध देश है, जिसमें विभिन्न प्रकार के खनिजों जैसे लौह अयस्क, कोयला, सोना, auxite, चांदी, तांबा, और अन्य खनिजों का भंडार पाया जाता है। इन खनिजों का दोहरा महत्व हैवे केवल औद्योगिक विकास और अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण हैं, बल्कि रोजगार सृजन और ऊर्जा उत्पादन के लिए भी आवश्यक हैं। भारत की खनिज विकास नीति का उद्देश्य इन संसाधनों का समुचित उपयोग करना, खनिज क्षेत्र की दक्षता को बढ़ाना और खनिज संसाधनों के सतत विकास को सुनिश्चित करना है।

भारत की खनिज विकास नीति के उद्देश्य

भारत की खनिज विकास नीति के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं:

  1. खनिज संसाधनों का समुचित उपयोग: भारत के खनिज संसाधनों का सही तरीके से उपयोग करने का उद्देश्य है ताकि वे भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी उपलब्ध रहें और उनके द्वारा सामाजिक और आर्थिक विकास को बढ़ावा मिले।
  2. खनिज क्षेत्र में निवेश बढ़ाना: खनिज संसाधनों के विकास में निजी और विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करना और खनन उद्योग में तकनीकी उन्नति को बढ़ावा देना।
  3. स्थिर खनिज आपूर्ति: देश में खनिजों की स्थिर आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए नीति बनाना ताकि औद्योगिक क्षेत्रों की जरूरतों को पूरा किया जा सके और आयात पर निर्भरता को कम किया जा सके।
  4. प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण: खनिज संसाधनों का संतुलित और विवेकपूर्ण उपयोग करना ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि खनिजों का अत्यधिक और असमान उपयोग प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुंचाए।
  5. विकसित और अर्ध-विकसित क्षेत्रों में खनिज संसाधनों का उत्खनन: नीति का एक प्रमुख उद्देश्य खनिज संसाधनों का उत्खनन विकसित और पिछड़े क्षेत्रों में करना है, ताकि इन क्षेत्रों में आर्थिक और सामाजिक विकास हो सके।

खनिज विकास नीति की प्रमुख विशेषताएँ

भारत सरकार ने खनिज विकास के लिए विभिन्न योजनाओं और नीतियों को लागू किया है। इनमें से कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

  1. खनन अधिकारों का नवीनीकरण और वितरण:
    • खनन के अधिकार (mining rights) का वितरण पारदर्शिता और निष्पक्षता के साथ किया जाता है। नई नीति में खनिजों के लिए -नीलामी (e-auction) प्रक्रिया को बढ़ावा दिया गया है, जिससे खनन अधिकारों का वितरण पारदर्शी तरीके से किया जा सके।
    • 2015 में खनिज क्षेत्र के लिए माइनिंग लॉ रिफॉर्म्स की शुरुआत की गई, जिसमें खनिजों की नीलामी को पारदर्शी बनाने के लिए नीतियों में सुधार किया गया।
  2. खनिज संसाधनों का पर्यावरणीय दृष्टिकोण से विकास:
    • खनन गतिविधियों को पर्यावरण के संरक्षण के साथ संतुलित किया गया है। खनिज क्षेत्रों में पर्यावरणीय मानकों का पालन सुनिश्चित किया जाता है, और खनिज उत्खनन के लिए पर्यावरणीय स्वीकृतियाँ प्राप्त करना आवश्यक है।
    • इसके अलावा, पुनः अभियांत्रिकी और भूमि पुनर्संरचना (land reclamation) की प्रक्रिया को भी खनन गतिविधियों में शामिल किया गया है, ताकि खनन के बाद भूमि को पुनः उपयोग में लाया जा सके।
  3. स्थानीय समुदायों के विकास के लिए पहल:
    • खनिज उत्खनन से प्रभावित स्थानीय समुदायों के कल्याण के लिए नीति बनाई गई है। इसमें रोजगार सृजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, और बुनियादी ढाँचे के विकास पर जोर दिया जाता है।
    • खनिज कंपनियों को स्थानीय समुदायों के लिए सामाजिक जिम्मेदारियाँ निभाने की आवश्यकता होती है, जैसे कि CSR (कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी) के तहत परियोजनाओं का कार्यान्वयन।
  4. खनिज क्षेत्र में निजी निवेश को बढ़ावा देना:
    • भारत सरकार ने खनिज क्षेत्र में विदेशी और घरेलू निवेश को आकर्षित करने के लिए कई सुधारों की शुरुआत की है, जिसमें निवेश के लिए बेहतर ढांचे और स्पष्ट नीतियाँ शामिल हैं।
    • 2015 में सरकार ने फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट (FDI) नीति में बदलाव किया, जिससे खनिज क्षेत्र में अधिक विदेशी निवेश संभव हो सका।
  5. नई खनिज नीति (National Mineral Policy):
    • भारत सरकार ने 2019 में नेशनल मिनरल पॉलिसी को पेश किया, जो खनिज क्षेत्र के विकास और प्रबंधन के लिए एक नई दिशा प्रस्तुत करती है। यह नीति खनिज संसाधनों के सतत उपयोग, खनिज सेक्टर के लिए प्रौद्योगिकी सुधार और खनन से जुड़े सामाजिक एवं पर्यावरणीय मुद्दों का समाधान पेश करती है।
    • इस नीति में खनिज क्षेत्र के लिए प्रौद्योगिकी का विकास, खनन में पारदर्शिता और खनिजों के वैल्यू एडिशन (value addition) पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
  6. खान और खनिज क्षेत्र में सुरक्षा मानक:
    • खनन गतिविधियों में काम करने वाले श्रमिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने सुरक्षा मानकों को कड़ा किया है। खनिज उद्योग के लिए औद्योगिक सुरक्षा के नियम और श्रमिकों के स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के लिए उपाय लागू किए गए हैं।
    • खनिज खनन में आधुनिक तकनीकियों का उपयोग और श्रमिकों की सुरक्षा के लिए उचित प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है।

भारत में खनिज विकास की चुनौतियाँ

  1. पर्यावरणीय क्षति: खनन प्रक्रिया के दौरान पर्यावरणीय नुकसान (जैसे वनों की कटाई, जल स्रोतों का प्रदूषण, और वायु प्रदूषण) हो सकता है, जिसके लिए सही नीतियों और निगरानी की आवश्यकता होती है।
  2. सामाजिक असमानताएँ: खनिज उत्खनन के कारण स्थानीय समुदायों के साथ संघर्ष उत्पन्न हो सकते हैं, खासकर आदिवासी इलाकों में, जहां भूमि अधिकारों और संसाधनों के वितरण में असमानता होती है।
  3. वैश्विक मूल्य निर्धारण और आपूर्ति संकट: वैश्विक बाजारों में खनिजों के मूल्य निर्धारण में उतार-चढ़ाव आने से भारत की खनिज आपूर्ति और व्यापार प्रभावित हो सकता है।
  4. अधिकारों का अव्यवस्थित वितरण: कभी-कभी खनिजों के अधिकारों का अव्यवस्थित वितरण और नीतियों की अस्पष्टता खनिज विकास को धीमा कर देती है।

निष्कर्ष:

भारत की खनिज विकास नीति का उद्देश्य खनिज संसाधनों का समुचित और टिकाऊ उपयोग करना है। हालांकि खनिज क्षेत्र के विकास में कई चुनौतियाँ हैं, फिर भी सरकार द्वारा किए गए सुधारों और नीतियों के माध्यम से इस क्षेत्र में निरंतर प्रगति हो रही है। खनिजों का उचित प्रबंधन और संसाधनों का संतुलित उपयोग भारत की दीर्घकालिक आर्थिक वृद्धि में सहायक होगा।

 

 

 

 

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